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सप्तपञ्चाशः सर्गः
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चापोनपीठिकाव्यासा योजनाम्यधिकोच्छ्याः । शुम्भिता मानवस्तम्भाश्चत्वारः पीठिकास्वधि ॥११॥ द्विषड्योजनदृश्यास्ते पालिकास्याम्बुजस्थिताः : वज्रस्फटिकवेड्यंमूलमध्याप्रविग्रहाः ॥१५॥ द्विसहस्राश्रयो नानारनरश्मिविमिश्रिताः । चतुर्दिसूर्ध्वसिद्धार्चाः रत्न भूतोरुपालिकाः ॥१६॥ पालिकामुखपमस्थतपनीयस्फुरद्घटाः । घटास्याबद्धफलकाः श्रीमामामिषवश्रियः ॥१७॥ श्रीचूलारत्नमाचकमास्यर्विशतियोजनाः । साभिमानमनोदेवमानवस्तंभना वभुः ॥१८॥ ततः सरांसि चत्वारि शुम्मदम्मोजमांज्यलम् । हंससारसंचक्राह्वारावरम्यककुप्स्वलम् ॥१९॥ अतो वज्रमयो वप्रो वक्षोदनो घनद्युतिः । द्विगुणीभूतविस्तारः परीयाय समन्ततः ॥२०॥ परीत्य परिखातोऽस्थाज्जलप्रममणिक्षित: । जानुदनाम्बुगम्भीरा कृष्णसाटीव भूस्त्रियाः ॥२१॥ हेमाम्भोजररजःपुञ्जपिञ्चरी माविताम्मसि । स्वच्छायां दिङ्मुखान्यस्यां साङ्गरागाणि चात्यभान् ॥२२॥ वल्लीवनमतोऽप्यन्तः परीत्य स्थितमित्यमात् । कुसुमामोदिता शान्तं शकुन्तालिकुलाकुलम् ॥२३॥ प्राकारोऽन्तः परीयाय कनस्कनकमास्वरः । विजयादिबृहद्रौप्यचतुर्गोपुरमण्डितः ॥२४॥ तत्र दौवारिका भौमाः कटकादिविभूषणाः । प्रभावोत्सारितायोग्या मुद्रोद्भुतपाणयः ॥२५॥
हैं ॥१३।। उन पीठिकाओंपर चार मानस्तम्भ सुशोभित हैं जो पीठिकाओंकी चौड़ाईसे एक धनुष कम चौड़े हैं और एक योजनसे कुछ अधिक ऊंचे हैं ॥१४॥ वे मानस्तम्भ बारह योजनकी दूरीसे दिखाई देते हैं। पालिकाके अग्रभागपर जो कमल हैं उन्हींपर स्थित हैं, उनका मूलभाग हीराका, मध्यभाग स्फटिकका और अग्रभाग वैडूर्यमणिका बना हुआ है ।।१५।। हर एक मानस्तम्भ दो-दो हजार कोणोंसे सहित हैं-दो-दो हजार पहलके हैं, नाना रत्नोंकी किरणोंसे मिले हुए हैं, उनकी चारों दिशाओंमें ऊपर सिद्धोंकी प्रतिमाएं विराजमान हैं तथा उनकी रत्नमयी बड़ी-बड़ी पालिकाएँ हैं ।।१६।। पालिकाओंके अग्रभागपर जो कमल हैं उनपर सुवर्णके देदीप्यमान घट हैं, उन घटोंके अग्रभागसे लगी हुई सीढ़ियां हैं, तथा उन सीढ़ियोंपर लक्ष्मीदेवीके अभिषेककी शोभा दिखलायी गयी है ॥१७॥ वे मानस्तम्भ लक्ष्मीदेवीके चूड़ारत्नके समान अपनी कान्तिके समूहसे बीस योजन तकका क्षेत्र प्रकाशमान करते रहते हैं तथा जिनका मन अहंकारसे युक्त है ऐसे देव और मनुष्योंको वहीं रोक देनेवाले हैं ||१८|| उन मानस्तम्भोंकी चारों दिशाएँ हंस, सारस और चकवोंके शब्दोंसे अत्यन्त सुन्दर हैं तथा उनमें खिले हुए कमलोंसे युक्त चार सरोवर हैं ॥१९॥
सरोवरोंके आगे एक वज़मय कोट है जो छाती बराबर ऊंचा है, अत्यन्त कान्तिसे युक्त है, ऊंचाईसे दूना चौड़ा है और चारों ओरसे घेरे हुए हैं ॥२०॥ इस कोटको चारों ओरसे घेरकर एक परिखा स्थित है जिसकी भूमि जलके समान कान्तिवाले मणियोंसे निर्मित है, उसमें घुटनों प्रमाण गहरा पानी भरा है तथा वह पृथिवीरूपी स्त्रीकी नीली साड़ीके समान जान पड़ती है ॥२१॥ वह परिखा अत्यन्त स्वच्छ है तथा उसका जल स्वर्णमय कमलोंकी परागके समूहसे पीला-पीला हो रहा है अतएव उसमें प्रतिबिम्बित दिशारूप स्त्रियोंके मुख अंगरागसे सहितके समान जान पड़ते हैं ॥२२॥ उसके आगे चारों ओरसे घेरकर स्थित लताओंका वन सशोभित है जो फलोंके द्वारा दिशाओंके अन्त भागको सगन्धित कर रहा है तथा पक्षियों और भ्रमरोंके समूहसे व्याप्त है ।।२३।। उसके आगे देदीप्यमान सुवर्णके समान चमकीला, एवं विजय आदि चांदोके बड़े-बड़े चार गोपुरोंसे सुशोभित कोट, चारों ओरसे घेरे हुए हैं ।।२४।। उन गोपुरोंपर व्यन्तर जातिके देव द्वारपाल हैं जो कटक आदि आभूषणोंसे सुशोभित हैं, अपने प्रभावसे अयोग्य
१. योजनान्यधिको-म.। २. रत्नभूजोढपालिकाः ङ.। -ऽरत्नभूतोनुपालिकाः क.। ३. चत्वारः म.। ४. -ज्याल । ५. ककुरचलं क., ख. । ६. सुखायां क. । सुखयां घ. । ७. कुसुमामादिता सान्तं म. ।
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