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षट्पञ्चाशः सर्गः
सुकृष्णनील कापोतबलाधानं प्रमादगम् । अधःपचगुणस्थानं रौद्रध्यानचतुष्टयम् ॥२६॥ अन्तर्मुहूर्तकालं तु दुर्धरत्वादतः परम् । क्षयोपशमभावस्तु परोक्षज्ञानभावतः ॥२७॥ भावलेश्याकषायस्वातन्त्र्यादौदयिकोऽपि वा । उत्तरं फलमेतस्य नारकी गतिरुच्यते ॥२८॥ परिहारौद्रे द्वे पापध्याने मुमुक्षवः । श्रम्यंशुक्लधियः सन्तु शुद्धभिक्षादिभिक्षवः ॥ २९ ॥ एकान्तं प्रासुकं क्षेत्रं क्षुद्रोपद्रववर्जितम् । दिव्यं संहननं द्रव्यं काकोऽत्युष्णादिवर्जितः ॥ ३० ॥ भावशुद्धिरपि श्रेष्टा यदा भवति योगिनः । आरभेत तदा ध्यानं सर्वद्वन्द्वसहः स हि ॥३१॥ गम्मीरः स्तम्भमूर्तिः सन् पर्यङ्कासनबन्धनः । नात्युन्मील निमीलश्च दत्तदन्ताप्रदन्तकः ॥३२॥ निवृत्तकरणग्रामव्यापारः श्रुतपारगः । मन्दं मन्दं प्रवृत्तान्तः प्राणापानादिसंचरः ॥३३॥ नाभेरुद्ध्वं मनोवृतिं मूर्ध्नि वा हृदि वालिके । मुमुक्षुः प्रणिधायाक्षं ध्यायेद् ध्यानद्वयं हितम् ॥३४॥ बाह्यात्मिकमावानां याथात्म्यं धर्म उच्यते । तद्धर्मादनपेतं यद्धस्यं तदुद्ध्यानमुच्यते ॥ ३५॥ लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदतः । सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता ॥३६॥ " जम्माजम्माक्षुतोद्गारप्राणापानादिमन्दता । निभृताङ्गवतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीर्तितम् ॥३७॥
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तथा मैं इसका स्वामी हूँ और यह मेरा स्व है इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो परिग्रह संरक्षणानन्द नामका चौथा रौद्रमें चारों प्रकारका ध्यान है ||२५|| यह रौद्रध्यान तीव्र कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्मा बलसे होता है, प्रमादसे सम्बन्ध रखता है और नीचेके पाँच गुण स्थानोंमें होता है ||२६|| इसका काल अन्तर्मुहूर्त है क्योंकि इससे अधिक एक पदार्थ में उपयोगका स्थिर होना दुर्धर है । यह परोक्ष ज्ञानसे होता है अतः क्षयोपशमभाव रूप है ॥२७॥ भावलेश्या और कषायके आधीन होता है इसलिए औदार्यकभाव रूप भी है । इस ध्यानका उत्तर फल नरकगति है ॥२८॥ जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं वे आर्तरौद्र नामक दोनों अशुभ ध्यानोंको छोड़ शुद्ध भिक्षाको ग्रहण करनेवाले भिक्षु-मुनि होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें अपनी बुद्धि लगावें ||२९|| जिस समय एकान्त, प्रासुक तथा क्षुद्र जीवोंके उपद्रवसे रहित क्षेत्र, दिव्य संहनन - आदिके तीन संहनन रूप द्रव्य, उष्णता आदिको बाधासे रहित काल और निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठभाव, इस प्रकार क्षेत्रादि चतुष्टय रूप सामग्री मुनिको उपलब्ध होती है तब समस्त बाधाओंको सहन करनेवाला मुनि प्रशस्त ध्यानका आरम्भ करता है ॥ ३०-३१ ॥ ध्यान करनेवाला पुरुष, गम्भीर, निश्चल शरीर और सुखद पर्यंकासन से युक्त होता है। उसके नेत्र न तो अत्यन्त खुले होते हैं और न बन्द ही रहते हैं ||३२|| नीचे के दांतोंके अग्रभागपर उसके ऊपरके दाँत स्थित वह इन्द्रियोंके समस्त व्यापारसे निवृत्त हो चुकता है, श्रुतकां पारगामी होता है, धीरे-धीरे श्वासोच्छ्वासका संचार करता है ॥३३॥ मोक्षका अभिलाषी मनुष्य अपनी मनोवृत्तिको नाभिके ऊपर मस्तकपर, हृदयमें अथवा ललाटमें स्थिर कर आत्माको एकाग्र करता हुआ धर्म्यंध्यान और शुक्लध्यान इन दो हितकारी ध्यानोंका चिन्तवन करता है ||३४|| बाह्य और आध्यात्मिक भावोंका जो यथार्थभाव है वह धर्म कहलाता है, उस धर्मंसे जो सहित है उसे धम्यंध्यान कहते हैं ||३५|| बाह्य और आभ्यन्तर के भेदसे धम्यंध्यानका लक्षण दो प्रकारका है। शास्त्रके अर्थंकी खोज करना, शीलव्रतका पालन करना, गुणोंके समूहमें अनुराग रखना, अँगड़ाई, जमुहाई, छींक, डकार और श्वासोच्छ्वासमें मन्दता होना, शरीरको निश्चल रखना तथा आत्माको व्रतोंसे युक्त करना, यह धर्म्यध्यानका बाह्य लक्षण है । और आभ्यन्तर लक्षण अपाय विचय आदिके भेदसे दश प्रकार
१. ललाटे वा । वालके म, घ । २. भंजाजृम्भा म, क्षितोद्गार म., ख. ।
* १. अपाय विचय, २ उपाय विचय, ३ जीव विचय, ४. अजीव विचय, ५. विपाक विचय, ६. वैराग्य विचय, ७. भव विचय, ८. संस्थान विचय, ९. आशा विचय और १०. हेतु विचय 1
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