________________
षट्पञ्चाशः सर्गः
अथ नेमिमुनीन्द्रोऽपि रत्नत्रयतपःश्रिया । व्रतगुप्तिस मित्युच्चै रेजे सोढपरोषहः ॥ १॥ अप्रशस्त पोह्यासावतं रौद्रं च शुकुधीः । ध्यानं धर्म्यं च शुक्लं च प्रशस्तं ध्यातुमुद्यतः ॥२॥ "ध्यानमेकाग्रचिन्ताया घनसंहननस्य हि । निरोधोऽन्तर्मुहूर्तं स्याच्चिन्ता स्यादस्थिरं मनः ॥३॥ तत्रार्तिरर्दनं वाधा ह्यातं तत्रभवं पुनः । सुकृष्णनीलकापोतलेश्याबलसमुद्भवम् ॥४॥ लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्यमाक्रन्दनादिकम् । परश्रीविस्मयप्रापं विषयासंजनादिकम् ॥५॥ तदात्मनः स्वयं वेद्यं परेषामानुमानिकम् । अभ्यन्तरं चतुर्भेदं स्वलक्षणसमन्वितम् ॥६॥ विषयस्यामनोज्ञस्य यदनुत्पत्तिचिन्तनम् । उत्पन्नस्य वियोगाय संकल्पाध्यवसायकम् ॥७॥ मनोज्ञविप्रयोगस्य यच्चानुत्पत्तिचिन्तनम् । उत्पन्नस्यान्तचिन्ता च चातुर्विध्य मितीरितम् ॥८॥ तत्रामनोज्ञदुःखस्य साधनं चेतनादिकम् । मर्त्यादि विषशस्त्रादि बाह्यमेतदुदीरितम् ॥९॥ आध्यात्मिकं तु वातादिप्रकोपजमनेकधा । कुक्ष्याक्षिदन्तशूलादिशारीरमतिदुस्सहम् ॥१०॥ शोकारतिमयोद्वेगविषादविषदूषितम् । जुगुप्सादौर्मनस्यादि मानसं दुःखसाधनम् ॥११॥ सर्वस्यास्यामनोज्ञस्य माभूदुत्पत्तिरित्यलम् । चिन्ताप्रबन्ध आद्यं स्यादार्तध्यानं महाविर्लेम् ॥१२॥
अथानन्तर - व्रत गुप्ति और समितियोंसे उत्कृष्टताको प्राप्त एवं परीषहों को सहन करनेवाले मुनिराज नेमिनाथ रत्नत्रय और तपरूपी लक्ष्मीसे सुशोभित होने लगे ॥१॥ उज्ज्वल बुद्धिके धारक भगवान्, आतं और रौद्र नामक अप्रशस्त ध्यानको छोड़कर धम्यंध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यानोंका ध्यान करनेके लिए उद्यत हुए ॥ २ ॥ उत्तमसंहननके धारक पुरुषकी चिन्ताका किसी एक पदार्थमें अन्तर्मुहूर्तके लिए रुक जाना सो ध्यान है और चिन्ताका अर्थ चंचल मन है || ३ || पीड़ाको आर्ति कहते हैं। आर्तिके समय जो ध्यान होता है उसे आतंध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान अत्यन्त कृष्ण, नील और कापोत लेश्याके बलसे उत्पन्न होता है ॥ ४ ॥ बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे आतंध्यान दो प्रकारका है। उनमें रोना आदि तथा दूसरेकी लक्ष्मी देखकर आश्चर्य करना और विषयोंमें आसक्त होना आदि बाह्य आतंध्यान है ।। ५ ।। अपने आपका आर्तध्यान स्वसंवेदनसे जाना जाता है और दूसरोंका अनुमानसे । आभ्यन्तर आर्तध्यानके चार भेद हैं जो नीचे लिखे अनुसार अपने-अपने लक्षणोंसे सहित है ॥ ६ ॥ अभीष्ट वस्तुको उत्पत्ति न हो ऐसा चिन्तवन करना सो पहला आर्तध्यान है। यदि अनिष्ट वस्तु उत्पन्न हो चुकी है तो उसके वियोगका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आतंध्यान है । इष्ट विषयका कभी वियोग न हो ऐसा चिन्तवन करना सो तीसरा आर्तध्यान है और इष्ट विषयका यदि वियोग हो गया है तो उसके अन्तका विचार करना यह चौथा आतंध्यान है ॥७-८|| अमनोज्ञ दुःखके बाह्य साधन चेतन और अचेतनके भेदसे दो प्रकारके हैं । उनमें मनुष्य आदि तो चेतन साधन हैं और विष-शस्त्र आदि अचेतन साधन हैं || ९ || अन्तरंग साधन भी शारीरिक और मानसिकके भेदसे दो प्रकारका है । वात आदिके प्रकोप से उत्पन्न उदर शूल, नेत्र शूल, दन्त-शूल आदि नाना प्रकारको दुःसह वीमारियां शारीरिक साधन हैं ||१०|| और शोक, अरति, भय, उद्वेग, विषाद आदि विषसे दूषित जो जुगुप्सा तथा दोमनस्य - बेचैनी आदि विकार हैं वे मानसिक दुःखके साधन हैं ||११|| 'सभी प्रकारके अमनोज्ञ - अनिष्ट विषयोंकी उत्पत्ति नहीं हो' इस प्रकार बार-बार चिन्ता करना सो
१. रौद्रयं म । २. 'उत्तमसंहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधे ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्'१ - त. सू. । ३. विस्मयं प्राप्तं म., विस्मयप्रायः क. । ४. यत्रानुत्पत्ति म । ५ तत्रामनोज्ञस्य दुःखस्य म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org