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षट्पचाशः सर्गः
कालभावविकल्पस्थं धर्म्यध्यानं दशान्तरम् । स्वर्गापवर्गफलदं ध्यातव्यं ध्यानतत्परैः ॥ ५२ ॥ शुक्लं शुचित्व संबन्धाच्छीचं दोषाथपोढता । शुक्लं परमशुक्लं च प्रत्येकं ते द्विधा मते ॥५३॥ सवीचारविवीचारपृथक्स्वैक्यवितर्क के । सूक्ष्मोच्छिन्नक्रियापूर्वप्रतिपातिनिवर्तके ॥५४॥ लक्षणं द्विविधं बाह्यं 'जम्भाजृम्भाद्यपोहनम् । प्राणापानप्रचारस्याव्यक्त्युच्छिन्न प्रहृष्यतः || ५५|| परेषामनुमेयं स्यात्स्वसंवेद्यं यदात्मनः । आध्यात्मिकं तयोरेव लक्षणं प्रतिपाद्यते ।। ५६ ।। पृथग्भावः पृथक्त्वं हि नानात्वमभिधीयते । वितर्को द्वादशाङ्गं तु श्रुतज्ञानमनाविलम् ||५७|| अर्थव्यन्जनयोगानां वीचारः संक्रमः क्रमात् । ध्येयोऽर्थो व्यञ्जनं शब्दो योगो वागादिलक्षणः ॥ ५८ ॥ पृथक्त्वेन वितर्कस्य विचारोऽर्थादिषु क्रमात् । यस्मिन्नास्ति तथोक्तं तत्प्रथमं शुद्धमिष्यते ॥५९॥ 'तद्यथा पूर्व विध्यायन्नविक्षिप्तमना मुनिः । ब्रम्याणुं चापि भावाणुमेकमालम्ब्य संवृतः ॥ ६०॥ अतीक्ष्णेनापि शस्त्रेण शनैश्छिन्दन्निव द्रुमम् । मोहस्योपशमं कुर्वन् क्षयं वा बहुनिर्जरः ॥६३॥
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यह दश प्रकारका धध्यान अप्रमत्त गुणस्थानमें होता है, प्रमादके अभावसे उत्पन्न होता है, पीत और पद्मनायक शुभ लेश्याओंके बलसे होता है, काल और भावके विकल्पमें स्थित है तथा स्वर्ग और मोक्षरूप फलको देनेवाला है। ध्यानमें तत्पर मनुष्योंको यह ध्यान अवश्य ही करना चाहिए । भावार्थं - यहां उत्कृष्टताको अपेक्षा धर्म्यध्यानको सातवें अप्रमत्त - गुणस्थानमें बताया है परन्तु सामान्य रूपसे यह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है और स्वर्गका साक्षात् तथा मोक्षका परम्परासे कारण है ॥५१-५२ ।।
जो शुचित्व अर्थात् शौचके सम्बन्धसे होता है वह शुक्लध्यान कहलाता है । दोष आदिकका अभाव हो जाना शौच है । यह शुक्ल और परम शुक्लके भेदसे दो प्रकार है तथा शुक्ल और परम शुक्ल दोनोंके दो-दो भेद माने गये हैं ॥५३॥ पृथक्त्व वितर्क वीचार और एकत्व वितर्क ये दो भेद शुक्लध्यानके हैं और सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति तथा व्युपरत क्रिया निर्वात ये दो परम शुक्लध्यानके भेद हैं ||१४|| बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे शुक्लध्यानका लक्षण दो प्रकारका कहा गया है । इनमें श्वासोच्छ्वासके प्रचारकी अव्यक्त अथवा उच्छिन्नदशासे युक्त मनुष्य जो अंगड़ाई और जमुहाई आदिका छूट जाना है वह बाह्य लक्षण है एवं अपने-आपको जिसका स्वसंवेदन होता है तथा दूसरेको जिसका अनुमान होता है वह आध्यात्मिक लक्षण है । आगे उन शुक्ल और परम शुक्ल ध्यानोंका आध्यात्मिक लक्षण कहा जाता है ॥५५-५६॥ पृथग्भाव अथवा नानात्वको पृथक्व कहते हैं । निर्दोष द्वादशांग - श्रुतज्ञान वितर्क कहलाता है । अर्थ, व्यंजन ( शब्द ) और योगोंका जो क्रमसे संक्रमण होता है उसे वीचार कहते हैं । जिस पदार्थका ध्यान किया जाता है वह अर्थं कहलाता है, उसके प्रतिपादक शब्दको व्यंजन कहते हैं और वचन आदि योग हैं ||५७-५८ || जिसमें वितर्क ( द्वादशांग ) के अर्थादिमें क्रमसे नानारूप परिवर्तन हो वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नामका पहला शुक्लध्यान माना जाता है ॥५९॥ इसका स्पष्टीकरण यह है कि निश्चल चित्रका धारक कोई पूर्वविद् मुनि द्रव्याणु अथवा भावाणुका अवलम्बन कर ध्यान कर रहा है सो जिस प्रकार कोई अतीक्ष्ण - भोथले शस्त्रसे किसी वृक्षको धीरेधीरे काटता है उसी प्रकार वह विशुद्धताका वेग कम होनेसे मोहनोय कर्मके उपशम अथवा
१. जम्भास्तम्भा - म. । २. स्या व्युत्पन्नाप्रहृष्यत: म. । ३. प्रतिपद्यते म । ४. 'वितर्कः श्रुतम् त, सू. अ. ९ । ५. 'वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः त. सू. अ. ९ । ६. तत्र द्रव्यं परमाणुं वा ध्यायन्नाहितवितर्कसामर्थ्यादर्थव्यञ्जने कायवचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेनापि शस्त्रेण चिरात्तरं छिन्दन्निव मोहप्रकृती रुपशमयन् क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग भवति । स. सि. अ. ९ ।
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