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हरिवंशपुराणे व्यावव्यान्तरं याति पर्यायं चान्यपर्ययात् । व्यञ्जनाद् व्यजनं योगायोगान्तरमुपैति यत् ॥६॥ शुक्लं तस्प्रथमं शुक्लतरलेश्याबलाश्रयम् । श्रेणीद्वयगुणस्थानं क्षयोपशमभावकम् ॥६३॥ सर्वपूर्वधरस्येदमन्तमौहर्तिकस्थिति । श्रेणीद्वयवशाद्वेद्यं स्वर्गमोक्षफलप्रदम् ।।६४॥ एकत्वेन वितर्कोऽस्ति यस्मिन्वीचारवर्जिते । तदेकरववितर्कावीचारं शुक्लं तदुत्तरम् ॥६५॥ एकमेवाणुपर्यायं 'विषयीकृत्य वर्तते । 'मोहादिघातिघातीदं पूर्विणः स कृती ततः ॥६॥ ज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीर्य चारित्रपूर्वकैः । मासते क्षायिकैर्भावस्तीर्थकृद्वान्यकेवली ॥६॥ सोऽर्चनीयोऽभिगम्यश्च त्रिभुवा परमेश्वरः । देशोनां विरहत्येकां पूर्वकोटी प्रकर्षतः ॥६८। अन्तर्मुहूर्तशेषायुः स यदा भवतीश्वरः । तत्तुल्यस्थितिवेद्यादित्रितयश्च तदा पुनः ॥६९।। समस्तं वाङ्मनोयोगं काययोगं च वादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य सूक्ष्मं तु काययोग स्वभावतः ।।७०॥ तृतीयं शुक्लसामान्यात्प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति ध्यानमास्कन्तुमर्हति ॥१॥ सोऽन्तर्मुहर्तशेषायुरधिकान्यत्रिकस्थितिः । यदा भवति योगीशस्तदा स्वाभाव्यतः स्वयम् ।।७२॥ स्वोपयोगविशेषस्य विशिष्टकरणस्य हि । सामायिकसहायस्य महासंवरसंगतेः ।।७।।
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शमको धीरे-धीरे करता है। कर्मोकी अत्यधिक निर्जराको करता हुआ वह मुनि द्रव्यसे द्रव्यान्तरको, पर्यायसे पर्यायान्तरको, व्यंजनसे व्यंजनान्तरको और योगसे योगान्तरको प्राप्त होता है ॥६०-६२॥ वह प्रथम शुक्लध्यान शुक्लतर लेश्याके बलसे होता है। उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी- दोनों गुणस्थानोंमें होता है । क्षायोपशमिक भावसे सहित है। समस्त पूर्वोके ज्ञाता मुनिके यह ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक रहता है तथा दोनों श्रेणियोंके वशसे यह स्वर्ग और मोक्ष रूप फलको देनेवाला है। भावार्थ--उपशम श्रेणीमें होनेवाला शुक्लध्यान स्वर्गका कारण है और क्षपकश्रेणीमें होनेवाला मोक्षका कारण है ।।६३-६४।।
जिसमें वीचार-अर्थादिके संक्रमणसे रहित होनेके कारण एक रूपमें ही वितर्कका उपयोग होता है अर्थात् वितर्कके अर्थ एवं व्यंजन आदिपर अन्तर्मुहूर्त तक चित्तको गति स्थिर रहती है वह एकत्व वितर्क वीचार नामका दूसरा शुक्लध्यान है ॥६५।। यह ध्यान एक ही अणु अथवा पर्यायको विषय कर प्रवृत्त होता है। मोह आदि घातिया कर्मोंका घात करनेवाला है, पूर्व धारीके होता है और इस ध्यानके प्रभावसे ध्यान करनेवाला कुशल मुनि ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य और चारित्र आदि क्षायिक भावोंसे सुशोभित होने लगता है। अब वह तीर्थंकर अथवा सामान्य केवली हो जाता है। वह सबके द्वारा पूज्य एवं सेवनीय हो जाता है और तीन लोकोंका परमेश्वर हो उत्कृष्ट रूपसे देशोन कोटिवर्ष पूर्व तक विहार करता रहता है ॥६६-६८||
जब उन केवली भगवान्की आयु अन्तर्मुहूर्तकी शेष रह जाती है तथा आयुके बराबर ही वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मोको स्थिति अवशिष्ट रहती है तब वे समस्त वचन योग, मनोयोग और स्थूल काय योगको छोड़कर स्वभावसे ही सामान्य शुक्लकी अपेक्षा तीसरे और विशेष-परमशक्लकी अपेक्षा प्रथम सक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामक ध्यानको प्राप्त करने योग्य होते हैं ॥६९-७१।। जब उन केवली भगवान्की स्थिति अन्तर्मुहूर्तको हो और शेष तीन अघातिया कर्मोकी स्थिति अधिक हो तब वे स्वभाववश अपने-आप चार समयों द्वारा आत्मप्रदेशोंको फैलाकर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक पूरण कर तथा उतने हो समयोंमें उन्हें संकुचित कर सब कर्मोंको स्थिति एक बराबर कर लेते हैं । इस क्रियाके
१. विषमीकृत्य म.। २. -घातपातीदं म.। ३. स्थितः म.। ४. महासंवरसंगते म. ।
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