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हरिवंशपुराणे दशधाध्यात्मिकं धर्म्यमपायविचयादिकम् । अपायो रहो विचयो मीमांसास्तीति तत्तथा ॥३८॥ संसारहेतवः प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तयः। अपायो वर्जन तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ॥३९॥ चिन्ताप्रबन्धसंबन्धः शुमलेश्यानुरञ्जितः । अपायविचयाख्यं तत्प्रथमं धय॑मीप्सितम् ॥४०॥ उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसारिकया। उपायः स कथं में स्वादिति संकल्पसंततिः ॥४॥ अनादिनिधना जीवा द्रव्यादन्यथान्यथा । असंख्येयप्रदेशास्ते स्वोपयोगत्वलक्षणाः ॥४२॥ अचेतनोपकरणाः स्वकृतोचितभोगिनः । इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् ॥४३॥ द्रव्याणामप्य जीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिन्तनं धयमजीबविचयं मतम् ॥४४॥ यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु । विपाकचिन्तनं धयं विपाकविचयं विदुः ॥४५॥ शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफलपाकिनः । विरागबुद्धिरित्यादि विरागविचयं स्मृतम् ॥४६॥ प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेत्यादिचिन्ता तु भवादिविचयं पुनः॥४७॥ 'सुप्रतिष्ठितमाकाशमाकाशे वलयत्रयम् । संस्थानध्यानमित्यादि संस्थानविचयं स्थितम् ॥४८॥ अतीन्द्रियेषु मावेषु बन्धमोक्षादिषु स्फुटम् । जिनाज्ञानिश्चयध्यानमाज्ञाविचयमीरितम् ॥४९॥ तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात् । सन्मार्गाश्रयणव्यानं यद्धेतुविचयं तु तत् ॥५०॥ अप्रमत्तगुणस्थानभूमिकं ह्यप्रमादजम् । पीतपद्मल सल्लेश्याबलाधानमिहाखिलम् ॥५॥
का है। इनमें अपायका अर्थ त्याग है और मीमांसाका अर्थ विचार है ॥३६-३८॥ मन, वचन और काय इन तीन योगोंकी प्रवृत्ति ही प्रायः संसारका कारण है सो इन प्रवृत्तियोंका मेरे अपाय-त्याग किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रकार शुभ लेश्यासे अनुरंजित जो चिन्ताका प्रबन्ध है वह अपाय विचय नामका प्रथम धबध्यान माना गया है ।।३९-४०॥ पुण्यरूप योग प्रवृत्तियोंको अपने आधीन करना उपाय कहलाता है। यह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है इस प्रकारके संकल्पोंकी जो सन्तति है वह उपाय विचय नामका दूसरा धर्म्यध्यान है ।।४१।। द्रव्याथिक नयसे जीव अनादि निधन हैं-आदि-अन्तसे रहित हैं और पर्यायार्थिक नयसे सादिसनिधन हैं। असंख्यात प्रदेशी हैं, अपने उपयोगरूप लक्षणसे सहित हैं, शरीररूप अचेतन उपकरणसे युक्त हैं और अपने द्वारा किये हुए कर्मके फलको भोगते हैं.""इत्यादि रूपसे जीवका जो ध्यान करना है वह जीव विचय नामका तीसरा धय॑घ्यान है ।।४२-४३।। धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्योंके स्वभावका चिन्तन करना यह अजीव विचय नामका चौथा धर्म्यध्यान है ॥४४॥ ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकारके बन्धोंके विपाकफलका विचार करना सो विपाक विचय नामका पांचवां धबध्यान है ॥४५॥ शरीर अपवित्र है और भोग किंपाक फलके समान तदात्व मनोहर हैं इसलिए इनसे विरक्त बुद्धिका होना ही श्रेयस्कर है " इत्यादि चिन्तन करना सो विराग विचय नामका छठा धम्यध्यान है ।।४६|| चारों गतियोंमें भ्रमण करनेवाले इन जीवोंकी मरनेके बाद जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं। यह भव दुःखरूप है । इस प्रकार चिन्तवन करना सो भव विचय नामका सातवां धर्म्य-ध्यान है ||४७|| यह लोकाकाश अलोकाकाशमें स्थित है तथा चारों ओरसे तीन वातवलयोंसे वेष्टित है इत्यादि लोकके संस्थान-आकारका विचार करना सो संस्थान विचय नामका आठवां धर्म्यध्यान है ।।४८॥ जो इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं देते ऐसे बन्ध, मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेन्द्र भगवान्की आज्ञाके अनुसार निश्चयका ध्यान करना सो आज्ञा विचय नामका नौवाँ धबध्यान है ।।४९|| और तर्कका अनुसरण करनेवाले पुरुष स्याद्वादको प्रक्रियाका आश्रय लेते हुए समीचीन मार्गका आश्रय करते हैं-उसे ग्रहण करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना सो हेतु विचय नामका दसवां धर्म्यध्यान है ॥५०॥ १. मपि जीवानां म.। २. भावादिविचयं म.। ३. स्वप्रतिष्ठित -क.। ४. पितपद्मस्य सल्लेश्या क. ।
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