________________
६३६
हरिवंशपुराणे
उत्पन्नस्यास्य चामावः कथं मे स्यादितीदृशम् । संकल्पाध्यवसानं तु द्वितीयं तत्प्रकीर्तितम् ॥१३॥ पशुपुत्रकलन्नादि मनोज्ञं सुखसाधनम् । बाह्यं स्यानधान्यादि सचेतनमचेतनम् ॥१४॥ आध्यात्मिकं च पित्तादि साम्यादारोग्यमाझिाकम् । मानसं सौमनस्यादि रत्यशोकाभयादिकम् ॥१५॥ विप्रयोगश्च मे माभूदैहिकामुत्रकस्य तु । मनोज्ञस्येति संकल्पस्तृतीयं चार्तमुच्यते ॥१६॥ मनोज्ञविप्रयोगस्य पूर्वोत्पन्नस्य यत्पुनः । अभावेऽध्यवसानं तु तुर्यमार्तमनोज्ञजम् ॥१७॥ अधिष्टानं प्रमादोऽस्य तिर्यग्गतिफलस्य हि । 'परोक्षं मिश्रको भावः षड्गुणस्थानभूमिकम् ॥१८॥ रुद्रः कराशयः प्राणी रौद्रं तत्रभवं ततः । हिंसासंरक्षणस्तेयमृषानन्देश्चतुर्विधम् ॥१९॥ आनन्दोऽभिरुचियेषां हिंसादिषु यथायथम् । हिंसानन्दादयस्तेऽतो निरुच्यन्ते समासतः ॥२०॥ लक्षणं द्विविधं तत्र पारुष्याक्रोशनादिकम् । स्वसंवेद्यं परैर्मयं बाझमाध्यात्मिकं पुनः ॥२१॥ स्यात्संरम्भसमारम्मारम्मलक्षणमात्मना । हिंसायां रंजनं तीव्र हिंसानन्दं तु नन्दितम् ॥२२॥ श्रद्धेयं परलोकस्य स्वविकल्पितयुक्तिमिः । विप्रलम्भनसंकल्यो मृषानन्दं सुनन्दितम् ।।२३।। प्रतीक्षया प्रमादस्य परस्वहरणं प्रति । प्रसह्य हरणं ध्यानं स्तेयानन्दमुदीरितम् ॥२४॥ स्वपरिग्रह भेदे तु चेतनाचेतनात्मनि । संरक्षणामिधानं तु स्वस्वामित्वाभिचिन्तनम् ॥२५॥
पहला मलिन आर्तध्यान है ॥१२॥ यदि किसी प्रकारके अमनोज्ञ-अनिष्ट विषयकी उत्पत्ति हो गयी है तो उसका अभाव किस प्रकार होगा? इसी बातका निरन्तर संकल्प करना दूसरा आर्तध्यान कहा गया है ॥१३॥ मनोज्ञ सुखके बाह्य साधन चेतन-अचेतनके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें पशु, स्त्री, पुत्र आदि सचेतन साधन हैं और धन-धान्यादि अचेतन साधन हैं ॥१४॥ आभ्यन्तर साधन भी शारीरिक और मानसिकके भेदसे दो प्रकारके हैं। इनमें पित्त आदिको समतासे जो आरोग्य अवस्था है वह शारीरिक साधन है और रति, अशोक, अभय आदिसे उत्पन्न जो सौमनस्य आदि है वह मानसिक साधन है॥१५॥ मुझे इस लोक-सस्बन्धी और परलोकसम्बन्धी इष्ट विषयका वियोग न हो ऐसा संकल्प करना तीसरा आर्तध्यान कहलाता है ॥१६॥ और पहल उत्पन्न इष्ट विषयके वियोगके अभावका संकल्प करना-बार-बार चिन्तवन करना चौथा आतंध्यान है ॥१७॥ इस आर्तध्यानका आधार प्रमाद है, फल तिर्यच गति है। यह परोक्ष क्षायोपशमिक भाव है और पहलेसे लेकर छठे गुणस्थान तक पाया जाता है ।।१८।।
क्रूर अभिप्रायवाले जीवको रुद्र कहते हैं। उसके जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। यह हिंसानन्द, चौर्यानन्द, मृषानन्द और परिग्रहानन्दके भेदसे चार प्रकारका है ।।१९।। जिनको हिसा आदिमें आनन्द अर्थात् अभिरुचि होती है वे संक्षेपसे हिंसानन्द आदि कहे जाते हैं ॥२०॥ बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे रौद्रध्यानके दो भेद हैं। उनमें क्रू र व्यवहार करना तथा गाली आदि अशिष्ट वचन बकना, बाह्य रौद्रध्यान है। अपने-आपमें पाया जानेवाला रौद्रध्यान स्वसंवेदनसे जाना जाता है-स्वयं ही अनुभवमें आ जाता है और दूसरेमें पाया जानेवाला रौद्रध्यान अनुमानसे जाना जाता है। हिंसा आदि कार्यों में जो संरम्भ, समारम्भ और आरम्भरूपी प्रवृत्ति है वह आभ्यन्तर आतंध्यान है। इसके हिंसानन्द आदि चार भेद हैं जिनके लक्षण इस प्रकार हैं। हिंसामें तीन आनन्द मानना सो हिंसानन्द नामक पहला रौद्रध्यान है ॥२१-२२॥ श्रद्धान करने योग्य पदार्थों के विषयमें अपनी कल्पित युक्तियोंसे दूसरोंको ठगनेका संकल्प करना मृषानन्द नामका दूसरा रौद्र ध्यान है ॥२३॥ प्रमादपूर्वक दूसरेके धनको जबरदस्ती हरनेका अभिप्राय रखना सो स्तेयानन्द नामका तीसरा रौद्रध्यान कहा गया है ॥२४॥ और चेतन, अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रहकी रक्षाका निरन्तर अभिप्राय रखना तथा मैं इसका १. परोक्षमिश्रको भावः क. । २. सविकल्पित म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org