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पनपञ्चाशः सर्गः
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ऋतृरियाय स धर्ममयस्ततो भुवि धनागमकालमयादिव। नभसि दीनमदर्शि धनावली मरुपथे पथिकैस्तृषितैरपि ॥७॥ प्रथमगर्जितशीतपयःकणा जलमुचां 'शिखिचातकसौख्यदाः। भुवि बभूवुरशेषवियोगिनां द्विगुणतापजुषामतिदुःसहाः ॥७५॥ दवदिवाकरदग्धवनावलीप्रथमनिर्गतवाष्पसुसौरभे। अभवतामिव सौहृददर्शने नभसि वर्षति मेघकदम्बके ।।७।। चलतडिरसबलाकबलाहके सुरपचापधरे शरवर्षिणी। क्षितिरभारसुरगोपशतैश्चिता पतितपान्थमनोभिरिवामितः ॥७॥ कुटजनीपकदम्बकदम्बकैः कुसुमितैः ककुभैः ककुभोऽखिलाः । नवशिलीन्ध्रदलैश्च मनोहराः सवनरन्ध्रगिरिक्षितयो बभुः ॥७॥ घनघनाघनगर्जिततर्जिता मुखरबाहुटतावलयारवेः। युवतयः प्रियकण्ठदृढग्रहैर्विदधुरुग्रमयग्रहनिग्रहम् ।।७।। गिरिशिलातपयोगविमोचितास्त्रिविधयोगधरा मुनयो वने। शिशिरमारुतवर्षसहक्षमास्तरुलताभिमुखास्ववतस्थिरे।।८।। पृथुरथं चतुरश्वयुतं तदा ध्वजपताकिनमर्करथप्रभम् । समधिरुह्य सनेमियुवान्वितो नृपसुतैश्चलितो वनभूमिकाम् ॥८॥
तदनन्तर अब पृथिवीपर वर्षाकाल आनेवाला है इस भयसे ही मानो ग्रीष्म ऋतु कहीं चली गयी। आकाशमें मेघमाला छा गयी और उसे मरुस्थलके पथिक प्यासे होनेपर भी बड़ी दीनतासे देखने लगे ॥७४॥ मेघोंकी प्रथम गर्जनाके जो शब्द और शीतल जलके छींटे क्रमसे मयूरों तथा चातकोंको सुखदायी थे वे ही पृथिवीपर दूने सन्तापको प्राप्त समस्त विरही मनुष्योंके लिए अत्यन्त दुःसह हो रहे थे ।।७५|| सावन के महीने में जब मेघोके समूह बरसने लगे तब दावानल और सूर्यके कारण दग्ध वनपंक्तिसे जो सर्वप्रथम वाष्प ( भाप ) और सोंदी-सोंदी सुगन्धि निकली वह ऐसी जान पड़ने लगी मानो मेघरूपी मित्रके दिखनेसे ही वनावलोके वाष्प-हर्षाव और सुखोच्छ्वासकी सुगन्धि निकलने लगी हो ॥७६।। चंचल बिजली और बलाकाओंसे सहित, मेघ जब इन्द्रधनुषरूपी धनुषको धारण कर शर अर्थात् बाण (पक्षमें जल ) की वर्षा करने लगे तब सैकड़ों इन्द्रगोपोंसे व्याप्त पृथिवी ऐसी जान पड़ने लगी मानो जहां-तहाँ पथिक जनोंके गिरे हुए अनुरागी हृदयोंसे ही व्याप्त हो रही हो ॥७७|| समस्त दिशाएं फूले हुए कुटज, कदम्ब और कोहाके वृक्षोंसे मनोहर दिखने लगी तथा वन, गतं और पर्वतोंसे सहित समस्त भूमि शिलीन्ध्रके नये-नये दलोंसे सुशोभित हो उठी ॥७८|| मेघोंकी. घनघोर गर्जनासे डरी हुई युवतियां, भुजाओंकी खनकती हुई चूड़ियोंके शब्दसे युक्त पतियोंके कण्ठके दृढालिंगनसे अपने तीव्र भयरूपी पिशाचका निग्रह करने लगीं। भावार्थ- मेघगर्जनासे भयभीत स्त्रियाँ पतियोंके कण्ठका दृढालिंगन करने लगीं ॥७९॥ आतापन, वर्षा और शिशिरके भेदसे तीन प्रकारके योगको धारण करनेवाले मुनियोंका उस समय पर्वतकी शिलाओंपर होनेवाला आतापन योग छुट गया था इसलिए वे वनमें शीत, वायु और वर्षाको बाधा सहन करते हुए वृक्ष और लताओंके नोचे स्थित हो गये। भावार्थ - मुनिगण वृक्षोंके नीचे बैठकर वर्षायोग धारण करने लगे ।।८०|| ऐसी ही वर्षाऋतुमें एक दिन युवा नेमिकुमार, ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित सूर्यके रथके समान १. दिवि चातक क., भुवि चातक छ। २. कर्तपदम । ३. श्रावणमासे । ४. सुरचापवरे क., ङ., म. । ५. 'इन्द्रः ककुभोऽर्जुनः' इत्यमरः । 'कोहा' इति हिन्दी।
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