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हरिवंशपुराणे
मुदितभोजसुतान गराङ्गनातृषितनेत्रनिपीतवपुर्जलः । विपुलराजपथेन स तैरगात् सकृपयेव मनोहरदर्शनः ॥ ८२ ॥ जलनिधिर्मुखरः स्वतरङ्ग कैलं कितनर्तनदोर्भिरिवाकुलैः । अतितरां विबमौ विभुसन्निधी विधृतनर्तननर्तके वत्तदा ॥ ८३ ॥ उपवनं समुपेत्य वनश्रियं सपदि यूनि विलोकयतीश्वरे । वितताखवनद्रुमजातयो विचकरुः कुसुमाञ्जलिमानताः || ८४ || स खलु पश्यति तत्र तदा वने विविधजातिभृतस्तृणमक्षिणः । भविकम्पितमानस गावकान् पुरुषरुद्धमृगानतिविह्वलान् ॥ ८५ ॥ लघु निरुध्य रथं स हि सारथिं निजनिनादजिताम्बुदनिस्वनः । अपि विदन्नवदन्मृगजातयः किमिह रोघमिमाः प्रतिलम्भिताः ॥ ८६ ।। अकथयत् प्रणतः स कृताञ्जलिः क्षितिभुजामिह मांसभुजां विभो । तव विवाहविधौ मृगरोधनं विविधमांसनिमित्तमनुष्टितम् ॥८७॥ इति निशम्य निशाम्य मृगवजान् प्रत्र तिभूतदयास्थितमानसः । नृपसुतानभिवीक्ष्य विभुर्जगावभिनिबोधवितुम्मणसावधिः ॥ ८८ ॥ गृह मरण्यमरण्य तृणोदकान्यशनपानमतीय निरागसः । मृगकुलस्य तथापि वधो नृभिर्जगति पश्यत निर्घृणतां नृणाम् ||८९ |
देदीप्यमान एवं चार घोड़ोंसे जुते रथपर सवार हो अनेक राजकुमारोंके साथ वनभूमिकी ओर चल दिये || ८१ ॥ प्रसन्नतासे युक्त राजीमती तथा नगरकी स्त्रियोंने अपने प्यासे नेत्रोंसे जिनके शरीररूपी जलका पान किया था एवं जिसका दर्शन मनको हरण कर रहा था ऐसे नेमिनाथ भगवान्, उन राजकुमारों के साथ विशाल राज-मागंसे दर्शकोंपर दया करते हुए के समान धीरेधीरे गमन कर रहे थे || ८२ ॥ | उस समय समुद्र, सुन्दर नृत्यमें व्यस्त भुजाओंके समान अपनी चंचल तरंगोंसे शब्दायमान हो रहा था और भगवान्के समीप आनेपर नाना प्रकारके नृत्यों को धारण करनेवाले नर्तक के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था || ८३ || उपवन में पहुँचकर युवा नेमकुमार शीघ्र ही वनकी लक्ष्मीको देखने लगे और वनके नाना वृक्षोंकी पंक्तियाँ अपनी शाखारूप भुजाएँ फैलाकर नम्रीभूत हो उनपर फूलोंकी अंजलियां बिखेरने लगीं ||८४ ॥ उसी समय उन्होंने वनमें एक जगह भयसे जिनके मन और शरीर कांप रहे थे, जो अत्यन्त विह्वल थे, पुरुष जिन्हें रोके हुए थे और जो नाना जातियोंसे युक्त थे ऐसे तृणभक्षी पशुओं को देखा ॥८५॥ यद्यपि भगवान्, अवधिज्ञानसे उन पशुओंको एकत्रित करनेका कारण जानते थे तथापि उन्होंने शीघ्र ही रथ रोककर अपने शब्दसे मेघध्वनि को जीतते हुए, सारथिसे पूछा कि ये नाना जाति के पशु यहाँ किसलिए रोके गये हैं ? || ८६ ॥ सारथिने नम्रीभूत हो हाथ जोड़कर कहा कि हे विभो ! आपके विवाहोत्सव में जो मांसभोजी राजा आये हैं उनके लिए नाना प्रकारका मांस तैयार करने के लिए यहाँ पशुओंका निरोध किया गया है || ८७|| इस प्रकार सारथिके वचन सुनकर ज्यों ही भगवान्ने मृगोंके समूहकी ओर देखा त्यों ही उनका हृदय प्राणिदयासे सराबोर हो गया । वे अवधिज्ञानी थे ही इसलिए राजकुमारोंकी ओर देखकर इस प्रकार कहने लगे कि वन ही जिनका घर है, वनके तृण और पानी हो जिनका भोजन-पान है और जो अत्यन्त निरपराध हैं ऐसे दीन मृगोंका संसार में फिर भी मनुष्य वध करते हैं । अहो ! मनुष्यों की निर्दयता तो
१. विधुत नर्तकनर्तन म., ङ. । २. सहसारथि म. ।
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