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पञ्चपञ्चाशः सर्गः
सपदिमुक्तजलाम्बरपीलने स्फुटकटाक्षगुणेन विलासिना । मधुरिपुस्थिरगौरव भूमिकामतुलजाम्बवतीं समनोदयत् ॥ ५८ ॥ कृतकको पविकारकटाक्षिणी सललितभ्रु विलोक्य तु चक्षुषा । विभुमुवाच वचः पथपण्डिता त्वरितजाम्बवती स्फुटिताधरा ॥ ५९ ॥ जगकोटिमणिद्युतिमण्डलद्विगुणिताङ्गतिरीटमणिप्रभः । सम िस कौस्तुभासुरः स्वहरिवाहमहाशयनं हरिः ॥ ६० ॥ घननिनादतताम्बरमम्बुज' जगति पूरयते निजमम्बुमाः । कठिनशार्ङ्गधनुः सगुणं करोत्यखिलभूपविभुः सुभगाङ्गनः ॥ ६१॥ पतिरसौ मम सोऽपि कदाचन प्रति न शास्ति हि वेदृशशासनम् । तदिह कश्चिदयं किल शास्ति मामपि भवान् सजलाम्बरपीलने ॥ ६२॥ इति निशम्य तु काश्चन तद्वचः प्रतिजगुर्जगतीपतियोषितः । किमिति नाथमधिक्षिपसि त्रिभू प्रभुमनन्तगुणं विगतत्र ॥ ६३ ॥ कियदिदं जगतीपतिपौरुषं जगति दुष्करमित्यभिधाय सः । सरभसं पुरमेत्य नृपालयं द्रुतगतिः प्रविवेश हसन्मुखः ॥६४॥ चल भुजङ्गमभोगविभूषणं तदधिरुह्य महाशयनं हरेः । करोद्विगुणं सगुणं धनुस्तमपि शङ्खमपूरयदीश्वरः ॥ ६५ ॥
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भगवान् ने जो तत्काल गीला वस्त्र छोड़ा था उसे निचोड़ने के लिए उन्होंने कुछ विलासपूर्ण मुद्रा कटाक्ष चलाते हुए कृष्णकी प्रेमपात्र एवं अनुपम सुन्दरी जाम्बवतीको प्रेरित किया || ५८॥ भगवान्का अभिप्राय समझ शीघ्रता से युक्त तथा नाना प्रकारके वचन बनाने में पण्डित जाम्बवती बनावटी क्रोधसे विकारयुक्त कटाक्ष चलाने लगी, उसका ओष्ठ कम्पित होने लगा एवं हाव-भावपूर्वक भौंहें चलाकर नेत्रसे भगवान् की ओर देखकर कहने लगी कि ||५९ || जिनके शरीर और मुकुट मणियोंकी प्रभा करोड़ों सर्पोंके मणियोंके कान्तिमण्डलसे दूनी हो जाती है, जो कौस्तुभ मणिसे देदीप्यमान हैं, जो महानागशय्यापर आरूढ़ हो जगत् में प्रचण्ड आवाजसे आकाशको व्याप्त करनेवाला अपना शंख बजाते हैं, जो जलके समान नीली आभाको धारण करनेवाले हैं, जो अत्यन्त कठिन शाङ्गनामक धनुषको प्रत्यंचासे युक्त करते हैं, जो समस्त राजाओंके स्वामी हैं और जिनकी अनेक शुभ-सुन्दर स्त्रियाँ हैं वे मेरे स्वामी हैं किन्तु वे भी कभी मुझे ऐसी आज्ञा नहीं देते फिर आप कोई विचित्र ही पुरुष जान पड़ते हैं जो मेरे लिए भी गीला वस्त्र निचोड़नेका आदेश दे रहे हैं ||६०-६२ || जाम्बवतीके उक्त शब्द सुनकर कृष्णको कितनी ही स्त्रियोंने उसे उत्तर दिया कि अरी निर्लज्ज ! इस तरह तीन लोकके स्वामी और अनन्तगुणोंके धारक भगवान् जिनेन्द्रको तू क्यों निन्दा कर रही है ? ||६३ || जाम्बवतीके वचन सुन भगवान् नेमिनाथने हँसते हुए कहा कि तूने राजा कृष्णके जिस पौरुषका वर्णन किया है संसार में वह कितना कठिन है ? इस प्रकार कहकर वे वेगसे नगरकी ओर गये और शीघ्रता से राजमहल में घुस गये || ६४ || वे लहलहाते सर्पोंकी फणाओंसे सुशोभित श्रीकृष्णकी विशाल नागशय्यापर चढ़ गये । उन्होंने उनके शाङ्गं धनुषको दूना कर प्रत्यंचासे युक्त
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१. शङ्ख । २. पूरयते च निजाम्बुभा: म., पूरयते च जिनाधिपैः घ., पूरयते निजमाम्बुजा : ग. पूरयते निजमाम्बुभाः ङ. ख. । ३. कोऽपि म । ४. -दीश्वरम् म. ।
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