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हरिवंशपुराणे
निवेदिता सुरेणासौ भवनोद्यानवर्तिनी । अद्राक्षीद् द्रौपदीं गत्वा साक्षादिव सुराङ्गनाम् ॥१४॥ प्रबुद्धा सर्वतोभद्रे शयने सा पुनः पुनः । स्वपित्येव विनिद्रापि स्वप्नोऽयमिति शङ्किनी ॥ १५ ॥ विनिमीलितनेत्राया ज्ञास्वाकृतमसौ नृपः । शनैः समीपमाश्रित्य वदति स्म प्रियंवदः ॥ १६ ॥ आयताक्ष निरीक्षस्व नैष स्वप्नो घटस्तनि । द्वीपोऽयं धातकीखण्डः पद्मनाभस्त्वहं नृपः ॥ १७ ॥ नारदेन समाख्यातं तव रूपं मनोहरम् । मयाराधितदेवेन त्वं मदर्थमिहाहृता ॥ १८॥
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श्रुत्वा चकितचित्ता सा किमेतदिति वादिनी । अचिन्तयदहो दुःखं दुरन्तं मे समागतम् ॥१९॥ पार्थदर्शन पर्यन्तमाहारस्यागमात्मनि । कृत्वा पार्थविमोच्यं च वेणीबन्धं दधार सा ॥ २० ॥ द्रौपदीशील निर्भेदवज्रप्राकारमध्यगा । पद्मनाभमुवाचेत्थं 'वाध्यमानं मनोभुवा ॥२१॥ भ्रातरौ रामकृष्णौ मे भर्ता पार्थो धनुर्धरः । मर्त्तुज्येष्ठौ महावीरावनुजौ च यमोपमौ ॥२२॥ जलस्थलपथैस्तेषामनिवारितगोचराः । विचरन्ति भुवं सर्वां मनोरथरया रथाः ॥ २३॥ क्षेमं यदि 'नृपैतेभ्यो वाञ्छसि त्वं सबान्धवः । तद्विसर्जय मां शीघ्रमाशीविषवधूपमाम् ॥२४॥ इस्युक्तोऽन्यनिवृत्तेच्छः स्वग्राहं नैष मुञ्चति । यदा तदा दृढा प्राह प्रत्युत्पन्नमतिः सती ॥२५॥ मासस्याभ्यन्तरे भूप यदोह स्वजना मम । नागच्छन्ति तदा त्वं मे कुरुष्व यदभीप्सितम् ॥२६॥ तथास्त्विति निगद्यैतां पद्मनाभोऽनुवर्तयन् । सान्तःपुरः प्रियशतैर्विलोभनपरः स्थितः ॥२७॥
किया हुआ वह देव रात्रिके समय सोती हुई द्रोपदीको पद्मनाभकी नगरी में उठा लाया ||१३|| देवने लाकर उसे भवनके उद्यानमें छोड़ दिया और इसकी सूचना राजा पद्मनाभको कर दी । राजा पद्मनाभने जाकर साक्षात् देवांगना द्रौपदीको देखा ॥ १४ ॥ यद्यपि दोपदी अपनी सर्वतोभद्र शय्यापर जाग उठी थी और निद्रारहित हो गयी थी तथापि 'यह स्वप्न है' इस प्रकार शंका करती हुई बार-बार सो रही थी || १५|| नेत्रोंको बन्द करनेवाली द्रौपदीका अभिप्राय जानकर राजा पद्मनाभ धीरेसे उसके पास गया और प्रिय वचन बोलता हुआ इस प्रकार कहने लगा ॥१६॥ उसने कहा कि हे विशाललोचने! देखो, यह स्वप्न नहीं है । हे घटस्तनि ! यह धातकीखण्डद्वीप है और में राजा पद्मनाभ हूँ ||१७|| नारदने मुझे तुम्हारा मनोहर रूप बतलाया था और मेरे द्वारा आराधित देव मेरे लिए तुम्हें यहाँ हरकर लाया है ॥१८॥ यह सुनकर उसका हृदय चकित हो गया तथा यह 'क्या है' इस प्रकार कहती हुई वह विचार करने लगी कि अहो ! यह मुझे दुरन्त दुःख आ पड़ा है ||१९|| 'जबतक अर्जुनका दर्शन नहीं होता तबतक के लिए मेरे आहारका त्याग है' ऐसा नियम लेकर उसने अर्जुनके द्वारा छोड़ने योग्य वेणी बाँध ली ||२०|| तदनन्तर शीलरूपी वज्रमय कोटके भीतर स्थित द्रौपदी कामके द्वारा पीड़ित होनेवाले राजा पद्मनाभसे इस प्रकार बोली ||२१|| कि बलदेव और कृष्णनारायण मेरे भाई हैं, धनुर्धारी अर्जुन मेरा पति है, पतिके बड़े भाई महावीर भीम और अर्जुन अतिशय वीर हैं और पतिके छोटे भाई सहदेव और नकुल यमराजके समान हैं ||२२|| जल और स्थलके मार्गों से जिन्हें कोई कहीं रोक नहीं सका ऐसे मनोरथके समान शीघ्रगामी उनके रथ समस्त पृथिवीमें विचरण करते हैं ||२३|| इसलिए हे राजन् ! यदि तू भाई- बान्धवों सहित, इनसे अपना भला चाहता है तो सर्पिणी के समान मुझे शीघ्र ही वापस भेज दे ||२४|| जिसकी अन्य सब इच्छाएँ दूर हो चुकी थीं ऐसे पद्मनाभने द्रौपदीके इस तरह कहनेपर भी जब अपना हठ नहीं छोड़ा तब परिस्थितिके अनुसार तत्काल विचार करनेवाली द्रौपदीने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया || २५ || कि हे राजन् ! यदि मेरे आत्मीयजन एक मासके भीतर यहाँ नहीं आते हैं तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह मेरा करना ||२६|| 'तथास्तु' - 'ऐसा हो' इस प्रकार कहकर 'पद्मनाभ अपनी स्त्रियोंके साथ उसे अनुकूल करता १. वाच्यमानं म । २. नृपैस्तेभ्यो म ।
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