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चतुःपञ्चाशः सर्गः
श्रेणिकेन पुनः पृष्टश्चेष्टितं पाण्डवोद्भवम् । संदेहध्वान्तघातार्को गौतमः स जगी गणी ॥१॥ स्थितेषु हास्तिनपुरे पाण्डवेषु यथाक्रमम् । निजस्वामिपरिप्राप्त्या तुतुषुः कुरवोऽधिकम् ॥२॥ सौराज्ये पाण्डुपुत्राणां वर्तमाने सुखावहे । सर्वे वर्णाश्रमा राष्ट्र धार्तराष्ट्रान् विसस्मरः ॥३॥ अखण्डतगतिः प्राप्तः कदाचित्पाण्डवास्पदम् । नारदश्चण्डचित्तोऽसी प्रकृत्या कलहप्रियः ॥४॥ आदरेण स तैर्दृष्टः प्रविशन्निस्सरन्नपि । व्यग्रयालंकृतौ तन्व्या द्रौपद्या तु न लक्षितः ॥५॥ ततो जज्वाल कोपेन तैलासंगादिवानलः । सजनावसरज्ञो न प्राणी संमानदुःखितः ॥६॥ स तदुःखविधानाय कृतेच्छः कृतनिश्चयः । धातकीखण्डपूर्वार्धमारतं प्रति खे ययौ ॥७॥ अङ्गेध्वमरकायां पुरि शङ्काविवर्जितः । स्त्रीलोलं पद्मनामाख्यं सामिख्यं दृष्टवानपम् ॥८॥ तेनान्तःपुरमात्मीयमात्मीयस्यास्य दर्शितम् । पृष्टश्च दृष्टमीदृक्षं स्त्रीरूपं क्वचिदित्यसौ ॥९॥ पर्यस्तं मन्यमानोऽयं पायसेऽभिमतं घृतम् । द्रौपदीरूपलावण्यं लोकातीतमवर्णयत् ॥१०॥ तं द्रौपदीमयं 'ग्राहं ग्राहयित्वा स नारदः । द्वीपक्षेत्रपुरावासकथनः क्वापि यातवान् ॥११॥ आराधयदसौ तीवतपसा द्रौपदीप्सया । सुरं संगमकाभिख्यं पातालान्तर्वासिनम् ॥१२॥ आराधितेन देवेन पद्मनामपुरी निशि । सा सुप्तव समानीता पार्थस्य वनिता प्रिया ॥१३॥
अथानन्तर राजा श्रेणिकने पुनः पाण्डवोंको चेष्टा पूछी सो सन्देहरूपी अन्धकारको नष्ट करने के लिए सूर्यके समान गौतम गणधर इस प्रकार कहने लगे ॥शा
जब पाण्डव हस्तिनापुरमें यथायोग्य रीतिसे रहने लगे तब कुरु देशकी प्रजा अपने पूर्वस्वामियोंको प्राप्त कर अत्यधिक सन्तुष्ट हुई ॥२॥ पाण्डवोंके सुखदायक सुराज्यके चालू होनेपर देशके सभी वर्ण और सभी आश्रम धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधन आदिको सर्वथा भूल गये ||३|| एक दिन सर्वत्र बे-रोक-टोक गमन करनेवाले, क्रुद्ध हृदय और स्वभावसे कलहप्रेमी नारद, पाण्डवोंके घर आये ॥४।। पाण्डवोंने नारदको बहुत आदरसे देखा परन्तु जब वे द्रौपदीके घर गये तब वह आभूषण धारण करने में व्यग्र थी इसलिए कब नारदने प्रवेश किया और कब निकल गये यह वह नहीं जान सकी ॥५॥ नारदजी, द्रौपदोके इस व्यवहारसे तेलके संगसे अग्निके समान, क्रोधसे जलने लगे सो ठोक हो है क्योंकि जो प्राणी सम्मानसे दुखी होता है वह सज्जनोंके भी अवसरको नहीं जानता ॥६॥ उन्होंने द्रौपदीको दुःख देनेका दृढ़ निश्चय कर लिया और उसी निश्चयके अनुसार वे पूर्वधातकीखण्डके भरत क्षेत्रकी ओर आकाशमें चल पड़े ॥७॥ वे निःशंक होकर अंग देशकी अमरकंकापुरीमें पहुंचे और वहां उन्होंने स्त्रीलम्पट, पद्मनाभ नामक शोभासम्पन्न राजाको देखा ॥८॥ राजा पद्मनाभने नारदको आत्मीय जान, अपना अन्तःपुर दिखाया और पूछा कि ऐसा स्त्रियोंका रूप आपने कहीं अन्यत्र भी देखा है ? ॥९॥ राजा पद्मनाभके प्रश्नको खोरमें पड़े घोके समान अनुकूल मानते हुए नारदने द्रौपदीके लोकोत्तर सौन्दर्यका वर्णन इस रीतिसे किया कि उसने उसे द्रौपदीरूपी पिशाचके वशीभूत कर दिया अर्थात् उसके हृदयमें द्रौपदीके प्रति अत्यन्त उत्कण्ठा उत्पन्न कर दो। तदनन्तर द्रौपदीके द्वौपक्षेत्र, नगर तथा भवनका पता बताकर वे कहीं चले गये ॥१०-११|| पद्मनाभने द्रौपदीके प्राप्त करनेकी इच्छासे तीब्र तपके द्वारा पाताललोकमें निवास करनेवाले संगमक नामक देवको आराधना की ॥१२॥ तदनन्तर आराधना १. सशोभम् 'अभिख्या नामशोभयोः' इत्यमरः । २. ग्राह्यं म.।
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