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पञ्चपञ्चाशः सर्ग:
करतलेन महीतलमुद्धरेजलनिधीनपि प्रचलयेद् गिरिराजमवज्ञया ननु जिनः कतमः परमोऽमुतः ॥८॥ इति निशम्य वचोऽथ निशाम्य तं स्मितमुखो हरिरीशमुवाच सः । किमिति युष्मदुदारवपुर्बलं भुजरणे भगवन् न परीक्ष्यते ॥९॥ सह ममामिनयोर्ध्वमुखो जिनः किमिहमल्लयुधेति तमबवीत् । भुजबलं भवतोऽप्रज बुध्यते चलय मे चरणं सहसासनात् ॥१०॥ परिकरं पग्विध्य तदोस्थितो भुजबलेन जिनस्य जिगीषया । चलयितुं न शशाक पदाङ्गुलिप्रमुखमस्य नखेन्दुधरं हरिः ॥११॥ श्रमजवारिलवाञ्चितविग्रहः प्रबलनिश्वसितोच्छ्वसिताननः । बलमहो तव देव जनातिगं स्फुटमिति स्मयमुक्तमुवाच सः ॥१२॥ 'बलरिपुश्च तदा चलितासनः स्वयमुपेत्य सुरैः सहसा सह । कृतजिनार्चनकः कृतसंस्तवः कृतनतिः प्रययौ पदमारमनः ॥१३॥ निजमगारमगाजिनचन्द्रमाः परिवृतः क्षितिपैः क्षपितस्मयः । हरिरपि स्फुटमात्मनि शङ्कितः क्लिशितधीहि जिनेष्वपि शकते ॥१४॥ उपचरखनुवासरमादरात् प्रियशर्जिनचन्द्रमसं हरिः।। प्रणयदर्शनपूर्वकमर्चयन् स्वयमनर्धगुणं जिनमुन्नतम् ॥१५॥
दूसरा बलवान् नहीं है ॥७॥ ये अपनी हथेलीसे पृथिवीतलको उठा सकते हैं, समुद्रोंको शीघ्र ही दिशाओंमें फेंक सकते हैं और गिरिराजको अनायास ही कम्पायमान कर सकते हैं। यथार्थमें ये जिनेन्द्र हैं, इनसे उत्कृष्ट दूसरा कोन हो सकता है ? ||८|| इस प्रकार बलदेवके वचन सुन कृष्णने पहले तो भगवान्की ओर देखा और तदनन्तर मुसकराते हुए कहा कि हे भगवन् । यदि आपके शरीरका ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहु-युद्धमें उसकी परीक्षा क्यों न कर ली जाये ? ||९|| भगवान्ने कछ खास ढंगसे मख ऊपर उठाते हए कृष्णसे कहा कि मझे इस विषयमें मल्ल यद्धकी क्या आवश्यकता है ? हे अग्रज ! यदि आपको मेरी भुजाओंका बल जानना ही है तो सहसा इस आसनसे मेरे इस पैरको विचलित कर दोजिए ॥१०॥ श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर भुजबलसे जिनेन्द्र भगवान्को जीतनेकी इच्छासे उठ खड़े हुए परन्तु पैरका चलाना तो दूर रहा नखरूपी चन्द्रमाको धारण करनेवाली पैरकी एक अंगुलिको भी चलानेमें समर्थ नहीं हो सके ॥११|| उनका समस्त शरीर पसीनाके कणोंसे व्याप्त हो गया और मुखसे लम्बी-लम्बी सांसें निकलने लगीं। अन्तमें उन्होंने अहंकार छोड़कर स्पष्ट शब्दोंमें यह कहा कि हे देव ! आपका बल लोकोत्तर एवं आश्चर्यकारी है ॥१२।। उसी समय इन्द्रका आसन कम्पायमान हो गया और वह तत्काल ही देवोके साथ आकर भगवान की पूजा-स्तुति तथा नमस्कार कर अपने स्थानपर चला गया ॥१३॥ उधर कृष्णके अहंकारको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा अनेक राजाओंसे परिवृत हो अपने महलमें चले गये और इधर कृष्ण भी अपने आपके विषयमें शंकित होते हुए अपने महल में गये सो ठीक ही है क्योंकि संक्लिष्ट बुद्धिके धारक पुरुष जिनेन्द्र भगवान्के विषयमें भी शंका करते हैं। भावार्थकृष्णके मनमें यह शंका घर कर गयो कि भगवान् नेमिनाथके बलका कोई पार नहीं है अतः इनके रहते हुए हमारा राज्य-शासन स्थिर रहेगा या नहीं? ॥१४॥ उस समयसे श्रीकृष्ण, उत्तम-अमूल्य
१. शीघ्रम् । २. समाभिनयो-म. । ३. तदोक्तितो म. । ४. नखेन्दुहरि म.। ५.-मुच्छवसितासनः म., क.। ६. इन्द्रः । ७. ज्ञपितस्मयः म.। ८. -मर्थयन् म.।
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