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हरिवंशपुराणे रथमुद्धृत्य हस्तेन साश्वसारथिमच्युतः । जानुदन्नमिवोत्तीणस्ता जङ्घाभ्यां भुजेन च ॥६॥ ततो विस्मिततुष्टास्ते स्वरयाभ्येत्य सन्मताः। 'शक्त्यमिज्ञाः स्तुतिव्यग्राः समाश्लिष्यन्नधोक्षजम् ॥६॥
वंशस्थवृत्तम् स्वयं कृतं नर्म ततो वृकोदरः स्वयं च विश्वश्रुतया जगाद सः। तदैष कृष्णोऽतिविरक्ततामगाददेशकालं न हि नर्म शोभते ॥६॥ अमानुषं कर्म जगत्यनेकशः कृतं मया दृष्टवतामपि स्वयम् । मदीयसामर्थ्य परीक्षणक्षमं किमत्र गङ्गीत्त रणे कुपाण्डवाः ॥७॥ निगद्य तानेवमसौ जनार्दनः सहैव सैरेत्य तु हास्तिनं पुरम् । सुभद्रया लब्धसुतार्यसूनवे वितीर्य राज्यं विससर्ज तान् क्रुधा ॥७॥ समस्तसामन्तकृतानुयानकः कृताभियानो यदुभिः कृतार्थकः । प्रविश्य कृष्णो नगरी गरीयसी निजां निजस्त्रीनिवहानमानयत् ॥७२॥ सुतास्तु पाण्डोर्ह रिचन्द्रशासनादकाण्ड एवाशनिपातनिष्ठुरात् । प्रगत्य दाक्षिण्यभृता सुदक्षिणां जनेन काष्ठा मथुरा न्यवेशयन् ।।७३॥ समुद्रवेलासु मनोहरासु ते लवङ्गकृष्णागुरुगन्धवायुषु ।
सुचन्दनामोदितदिक्षु दक्षिणा विजहरुच्चमलयाद्रिसानुषु ।।०४।। उन्होंने पूछा कि आप लोग इस गंगाको किस तरह पार हुए हैं ? तो कृष्णकी चेष्टाको जाननेके इच्छुक भीमने कहा कि हम लोग भुजाओंसे तैरकर आये हैं। श्रीकृष्ण भीमके कथनको सत्य मान गंगाको पार करनेकी शीघ्रता करने लगे॥६५-६६।। श्रीकृष्णने घोड़ों और सारथीके सहित रथको एक हाथपर उठा लिया और एक हाथ तथा दो जंघाओंसे गंगाको इस तरह पार कर लिया जिस तरह मानो वह घोंटू बराबर हो हो ॥६७|| तदनन्तर आश्चर्यसे चकित और आनन्दसे विभोर पाण्डवोंने शीघ्र ही सामने जाकर नम्रीभूत हो श्री कृष्णका आलिंगन किया और उनकी अपूर्व शक्तिसे परिचित हो वे उनकी स्तुति करने लगे ॥६८।। तत्पश्चात् भीमने सबको सुनाते हुए स्वयं कहा कि यह तो मैंने हंसी की थी। यह सुन, श्रीकृष्ण उसी समय पाण्डवोंसे विरक्तता को प्राप्त हो गये सो ठोक ही है क्योंकि बिना देश-कालकी हंसी शोभा नहीं देती ॥६९|| कृष्णने पाण्डवोंको फटकारते हुए कहा कि अरे निन्द्य पाण्डवो! मैंने संसारमें तुम लोगोंके देखते-देखते अनेकों बार अमानुषिक कार्य किये हैं फिर इस गंगाके पार करने में कौन-सी बात मेरी परीक्षा करने में समर्थ थी? ॥७०।। इस प्रकार पाण्डवोंसे कहकर वे उन्हींके साथ हस्तिनापुर गये और वहाँ सुभद्राके पुत्र आर्य-सूनुके लिए राज्य देकर उन्होंने पाण्डवोंको क्रोधवश वहाँसे विदा कर लिया ॥७१||
तदनन्तर समस्त सामन्त जिनके पीछे-पीछे चल रहे थे और यादवोंने सम्मुख आकर जिनका अभिनन्दन किया था ऐसे कृतकार्य श्रीकृष्णने विशाल द्वारिका नगरीमें प्रवेश कर अपनी स्त्रियोंके समूहको प्रसन्न किया ॥७२।। असमयमें वज्रपातके समान कठोर कृष्णचन्द्रको आज्ञासे पाण्डव, अपने अनुकूल जनोंके साथ दक्षिण दिशाकी ओर गये और वहाँ उन्होंने मथुरा नगरी बसायी ॥७३॥ वहां वे दक्षिण दिशामें लौंग और कृष्णागरुकी सुगन्धित वायसे व्याप्त समद्रके मनोहर तटोंपर तथा उत्तम चन्दनसे दिशाओंको सुगन्धित करनेवाली मलयगिरिको ऊंची-ऊंची चोटियोंपर विहार करने लगे ॥७४।।
१. शक्तिभिक्ष्याः म. । २. निवहाद्यमानयत् म. । Jain Education International
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