________________
चतुःपञ्चाशः सर्गः
६१३ स्नास्वा भुक्त्वा कृतातिथ्या मनसा पाण्डवैः सह । निवेद्य निजदुःखं सा मुमोचाः' समं ततः ॥५४॥ स्यमारोग्य तो वाधौं दध्मौ शङ्ख निजं हरिः । आपुपूरे दिशां चक्रं चक्रिशङ्खस्य निस्वनः ॥५५॥ कपिलो वासुदेवोऽपि तदा चम्पाबहिःस्थितम् । जिनं नन्तुं गतोऽपृच्छत् श्रुत्वा तं कम्पितक्षितिम् ॥५६॥ केनायं परितः शङ्ख नाथ ! मत्समशक्तिना। न चाद्य मादृशोऽस्तीह भारते मदधिष्ठिते ॥५॥ जिनेन कथिते तरवे प्रश्नितोत्तरवादिना । दिदृक्षस्तं यियासुः स माषितो धर्मचक्रिणा ॥५॥ नान्योन्यदर्शनं जातु चक्रिणां धर्मचक्रिणाम् । हलिना वासुदेवानां त्रैलोक्ये प्रतिचक्रिणाम् ॥५९॥ गतस्य चिह्नमात्रेण तव तस्य च दर्शनम् । शङ्खास्फोटनिनादैश्च रथध्वजनिरीक्षणः ॥६॥ भायातस्य ततस्तस्य कपिलस्यानुयादवम् । साफल्यमभवद्गजिनोक्तिविधिनाम्बुधौ ॥६॥ आगत्य कपिलश्चम्पामसांप्रतविधायिनम् । कोपादमरककेश केशवः सोऽत्यतर्जयत् ॥६२॥ पूर्वेणव क्रमेणामी लघृत्तीर्णा महार्णवम् । वेलातटे विशश्राम केशवः पाण्डवा गताः ॥६३॥ नौमिर्गको समुनीर्य तस्थुस्ते दक्षिणे तटे । व्यपनीता च भीमेन क्रीडाशीलेन नौस्तटी ॥६॥ आगतोऽनुपदं विष्णुः कृष्णया सहितस्तदा । अप्राक्षीत्कथमुत्तीर्णा गङ्गा यूयमितीमिकाम् ॥६५॥ वृकोदरोऽवदहोमिरिति जिज्ञासरीहितम् । स सत्यमिति मत्वा तदुत्तरीतुमिति त्वरी ॥६६॥
पसीनासे भीगे हुए दोनों हाथोंसे स्वयं उसकी वेणी खोली ॥५३॥ द्रौपदीने पाण्डवोंके साथ स्नान किया, भोजन किया, हृदयसे सबका अतिथि-सत्कार किया, उनके सामने अपना दुःख निवेदन किया और अश्रुधाराके साथ-साथ सब दुःख छोड़ दिया। भावार्थ-पाण्डवोंके सामने सब दुःख प्रकट कर वह सब दुःख भूल गयी ॥५४॥
तदनन्तर कृष्णने द्रोपदीको रथमें बैठाकर समुद्रके किनारे आ इस रीतिसे अपना शंख बजाया कि उसका शब्द समस्त दिशाओंमें व्याप्त हो गया ॥५५।। उस समय वहाँ चम्पा नगरीके बाहर स्थित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार करने के लिए धातकीखण्डका नारायण कपिल
या था उसने पृथिवीको कम्पित करनेवाला शंखका उक्त शब्द सुनकर जिनेन्द्र भगवान्से पूछा कि हे नाथ ! मेरे समान शक्तिको धारण करनेवाले किस मनुष्यने यह शंख बजाया है। इस समय मेरे द्वारा शासित इस भरतक्षेत्रमें मेरे समान दूसरा मनुष्य नहीं है ।।५६-५७॥ प्रश्नका उत्तर देनेवाले जिनेन्द्र भगवान्ने जब यथार्थ बात कही तब कृष्णको देखनेकी इच्छा करता हुआ वह वहाँसे जाने लगा। यह देख जिनेन्द्र भगवान्ने कहा कि हे राजन् ! तीन लोकमें कभी चक्रवर्ती-चक्रवर्तियोंका, तीर्थंकर-तीर्थंकरोंका, बलभद्र-बलभद्रोंका, नारायण-नारायणोंका और प्रतिनारायण-प्रतिनारायणोंका परस्पर मिलाप नहीं होता। तुम जाओगे तो चिह्न मात्रसे ही उसका और तुम्हारा मिलाप हो सकेगा। एक दूसरेके शंखका शब्द सुनना तथा रथोंकी ध्वजाओंका देखना इन्हीं चिह्नोंसे तुम्हारा और उसका साक्षात्कार होगा ॥५८-६०॥ तदनन्तर कपिल नारायण, श्रीकृष्णको लक्ष्य कर आया और जिनेन्द्र भगवान्के कहे अनुसार उसका दूरसे ही समुद्र में कृष्णके साथ साक्षात्कार हुआ ॥६१॥ कपिल नारायणने चम्पा नगरीमें वापस
कर अनुचित कार्य करनेवाले अमरकंकापुरीके स्वामी राजा पद्मनाभको क्रोधमें आकर बहुत डांटा ॥६॥ कृष्ण तथा पाण्डव पहलेकी ही भांति महासागरको शीघ्र ही पार कर इस तटपर आ गये। वहां कृष्ण तो विश्राम करने लगे परन्तु पाण्डव चले आये ॥६३|| पाण्डव नौकाके द्वारा गंगाको पार कर दक्षिण तटपर आ ठहरे। भीमका स्वभाव क्रीड़ा करनेका था इसलिए उसने इस पार आनेके बाद नौका तटपर छिपा दी॥६५॥ पोछे जब द्रौपदीके साथ कृष्ण आये और
१. मुमोचास्रः म.। २. दध्यो म.। ३. त्रैलोक्य-म.। ४. क्रोडाशैलेन म., क. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org