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त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः
अभिषिक्तौ ततः सर्वैर्भूपैर्भूचरखेचरैः । भरतार्धविभुत्वे तौ प्रसिद्धौ रामकेशवौ ॥४३॥ संस्थाप्य सहदेवं स चक्री राजगृहे नृपम् । मागधानां चतुर्भागं ददौ तस्मै गतस्मयः ||४४ || उग्रसेनसुतायादाद्वारा मथुरां पुरीम् । स महानेमये शौर्यनगरं प्रददौ नृपः ||४५|| श्रीहास्तिनपुरं प्रीत्या पाण्डवेभ्यः प्रियं हरिः । कोशलं रुक्मनामाय रुधिरात्मजसूनवे ||४६ || भूचरान् खेचरान्भूपानौचित्येन समागतान् । स्थानेषु स्थापनां चक्रे चक्रपाणिर्यथायथम् ॥४७॥ विसृष्टाश्च यथास्थानं यातास्ते पाण्डवादयः । आरेमुर्द्वारिकायां तु यादवास्त्रिदशा यथा ||४८|| वसन्ततिलका
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चक्र सुदर्शनमदृष्टमुखं रिपूणां शाङ्गं धनुर्ध्वननधूत विपक्षपक्षम् ।
सौनन्दकोऽपि च गदापि च कौमुदी सा मोघेतरा रिपुषु शक्तिरमोघमूला ॥४९॥ शङ्खश्च शङ्खखचितस्य स पाञ्चजन्यः श्रीकौस्तुभो मणिरसावनणुप्रतापः ।
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रत्नानि सप्त महितानि हरेर्हितानि व्यामान्ति दिव्यमयमूर्तियुतानि तानि ॥ ५० ॥ दिव्यायुधं हलमभादपराजिताख्यं दिव्या गदामुसलशक्त्यवतंसमालाः । रत्नानि पञ्च महितानि हलायुधस्य हेलाविधूतरिपुमण्डलविभ्रमस्य ॥ ५१ ॥ राज्ञां स षोडशसहस्रगुणैगुणज्ञगन्यैर्गुणी प्रणतमूर्धभिरर्धचक्री |
साथ लौटकर आये थे उन्हें यथायोग्य भोग्य सामग्री दी गयी और वे द्वारिकापुरीके महलोंमें विधिपूर्वक निश्चिन्ततासे ठहराये गये थे || ४२ ॥
तदनन्तर समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंने अतिशय प्रसिद्ध बलदेव और श्रीकृष्णको अर्धं भरतक्षेत्र के स्वामित्वपर अभिषिक्त किया अर्थात् राज्याभिषेक कर उन्हें अर्धं भरतक्षेत्रका स्वामी घोषित किया ||४३|| तत्पश्चात् चक्ररत्नके धारक श्रीकृष्णने जरासन्धके द्वितीय पुत्र सहदेवको राजगृहका राजा बनाया और उसे निरहंकार होकर मगध देशका एक चौथाई भाग प्रदान किया ||४४ || उग्रसेनके पुत्र द्वारके लिए मथुरापुरी दो, महानेमिके लिए शपुर दिया || ४५||
पाण्डवोंके लिए प्रीतिपूर्वक उनका प्रिय हस्तिनापुर दिया और राजा रुधिरके नाती रुक्मनाभ के लिए कोशल देश दिया ||४६ || इस प्रकार चक्रपाणि - श्रीकृष्णने आये हुए समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंकी यथायोग्य स्थानों पर स्थापना की -- यथायोग्य स्थानोंका उन्हें राजा बनाया || ४७|| तदनन्तर श्रीकृष्णसे विदा लेकर पाण्डव आदि यथास्थान चले गये और यादव देवोंके समान द्वारिकामें क्रीड़ा करने लगे ||४८||
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शत्रुओंका मुख नहीं देखनेवाला सुदर्शन चक्र, अपने शब्दसे शत्रुपक्षको कम्पित करनेवाला शार्ङ्गधनुष, सौनन्दक खड्ग, कौमुदी गदा, शत्रुओंपर कभी व्यर्थ नहीं जानेवाली अमोघमूला शक्ति, पांचजन्य शंख और विशाल प्रतापको प्रकट करनेवाला कौस्तुभ मणि; शंखके चिह्नसे चिह्नित श्रीकृष्ण के ये सात रत्न थे । ये सातों रत्न देवोंके द्वारा पूजित, अतिशय हितकारी और दिव्य आकारसे युक्त होते हुए अत्यन्त सुशोभित थे ||४९-५० || शत्रु समूह के विभ्रमको अनायास हो नष्ट करनेवाले बलदेवके, अपराजित नामक दिव्य हल, दिव्य गदा, दिव्य मुसल, दिव्य शक्ति और दिव्य माला ये पाँच रत्न थे । बलभद्रके भी ये पांचों रत्न देवोंके द्वारा पूजित थे ॥ ५१ ॥ गुणोंको जाननेवाले, गणनीय एवं नतमस्तक सोलह हजार प्रमुख राजा और आठ हजार
१. सुतायाद्वीराय क., सुतायादाद्वराय म. । खचितस्य (क. टि. ) ।
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२. कोशलां म ।
३. सुखं म । ४. शङ्खाख्येन लक्षणे
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