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त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः
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बलद्वयस्य संपाते जाते तत्र ततोऽन्वभूत् । प्रजानां प्रलयाशङ्का भयव्याकुलचेतसाम् ॥१३॥ द्वन्द्वयुद्धे प्रवृत्तेऽतो नृवाजिरथहस्तिनाम् । अन्योन्यं न्यायतोऽन्योन्यमयधीत्सैन्ययोर्द्वयम् ॥१४॥ आनकेन सपुत्रेण प्रद्युम्नेनामिमानिना । तथा शम्बेन पक्षेण खेचराणां जनेन च ॥१५॥ हेतिज्वालावहैरेमिः शत्रुभूभृ स्कदम्बकम् । भस्मीकुर्वद्भिरुभूतैर्लोलैदावानलायितम् ॥१६॥ अत्रान्तरे सुरैस्तुष्टैस्तस्मिनुघुटमम्बरे २ । नवमो वासुदेवोऽभूद्वसुदेवस्य नन्दनः ॥१७॥ निहतश्च जरासन्धस्तच्चक्रणव संयुगे । वर्गुणद्वेष। वासुदेवेन चरिना ॥१८॥ इत्युक्त्वा वसुदेवस्य रथस्योपरि पातिता । नानारत्नमयी वृष्टिः कौमुदीव दिवः सुरैः ॥१९॥ गिरस्ता मरुतां श्रुत्वा ततस्ते रिपुखे वराः । त्रस्ताः शरणमायाता वसुदेवमितोऽमुतः ॥२०॥ वसुदेवस्य पुत्राणां शम्बप्रद्युम्नवारयोः । वसुदेवमुपाश्रित्य कन्या विद्याधरा ददुः ॥२१॥ वयं तु वसुदेवोक्ता युष्मदन्तिकमागताः । क्षेमोदन्तं तथैवास्य निवेदयितुमागताः ॥२२॥ नानाविद्याधराधाशा नानाप्राभृतपणयः । आनकेन सहायान्ति ते नारायणभक्तितः ॥२३॥ यावद्वनवती तेषामितीष्टं कथयत्यसो । तावद्विमानसंघातैः खेटानामावृतं नमः ॥२४॥ अवतीर्य विमानेभ्यो वसुदेवानुयायिनः । वासुदेवं बलोपेतं प्रणेमुः प्राभृतान्विताः ॥२५॥ अभ्युत्थाय ततो भक्तौ पितरं रामकेशवौ । प्रणेमतुरनेनापि तावाश्लिस्वामिनन्दितौ ॥२६॥ ज्येष्टानपूजयत्सर्वान्प्रणम्यानकदुन्दुभिः । प्रद्युम्नाद्या यथायोग्य प्रणेमुर्गुरुबान्धवान् ॥२७॥
यथाक्रमं नमोशनाः केशवेन बलेन च । प्रतिसम्मानिताः सर्व सफलं जन्म मेनिरे ॥२८॥ तत्पश्चात् वहां जब दोनों सेनाओंमें घोर युद्ध होने लगा तब लोगोंको प्रलयकी आशंका होने लगी और उनके चित्त भयसे व्याकुल हो उठे ||१३|| हाथी, घोडे, रथ और प्यादोंका द्वन्द्व यद्ध होनेपर दोनों सेनाएं परस्पर न्यायपूर्वक एक-दूसरेका वध करने लगीं ।।१४।वसुदेव, उनके पुत्र, अभिमानी प्रद्यम्न, शम्ब तथा पक्षके अनेक विद्याधर ये सब शस्त्ररूपी ज्वालाओंको धारण कर शत्रुरूपी राजाओंके समूहको भस्म कर रहे थे एवं बड़ी चपलताके.साथ सामने आये थे इसलिए दावानलके समान जान पड़ते थे ॥१५-१६।। इसी अवसरपर सन्तुष्ट हए देवोंने आकाशमें यह घोषणा की कि वसुदेवका पुत्र कृष्ण नौवाँ नारायण हुआ है और उसने चक्रधारी होकर अपने गुणोंमें द्वेष रखनेवाले प्रतिशत्रु जरासन्धको उसीके चक्रसे युद्ध में मार डाला है। यह कहकर देवोंने आकाशसे चाँदनीके समान नानारत्नमयी वृष्टि वसुदेवके रथपर करनी प्रारम्भ कर दो ॥१७-१९।। तदनन्तर शत्रु विद्याधर देवोंकी उक्त वाणी सुनकर भयभीत हो गये और जहाँतहाँसे एकत्रित हो वसुदेवकी शरणमें आने लगे ।।२०।। उन्होंने वसुदेवके पास आकर उनके पुत्रोंको एवं प्रद्युम्न कुमार और शम्ब कुमारको अपनी अनेक कन्याएं प्रदान की ॥२१॥ हम लोग वसुदेवकी प्रेरणा पाकर यह कुशल समाचार सुनाने के लिए आपके पास आयी हैं ॥२२॥ नारायणकी भक्तिसे प्रेरित हुए अनेक विद्याधर राजा, नाना प्रकारके उपहार हाथमें लिये वसुदेवके साथ आ रहे हैं ।।२३।। इस प्रकार वनवती ( नागकुमारो) देवी जबतक उन्हें यह इष्ट समाचार सुनाती है तबतक विद्याधरों के विमानोंके समूहसे आकाश व्याप्त हो गया ॥२४॥ वसुदेवके अनुयायी विद्याधरोंने विमानोंसे उतरकर बलदेव और कृष्णको नमस्कार किया तथा नाना प्रकारके उपहार समर्पित किये ।।२५।। तदनन्तर भक्तिसे भरे बलदेव और नारायणने पिताको नमस्कार किया और पिताने भी दोनोंका आलिंगन कर उनकी बहुत प्रशंसा की ॥२६।। वसुदेवने समुद्रविजय आदि समस्त गरुजनोंको प्रणाम किया एवं प्रद्यम्न आदिने भी गरुजनों एवं भाई-बान्धवोंको यथायोग्य नमस्कार किया ||२७|| नारायण और बलभद्रने यथायोग्य जिनका सत्कार किया था ऐसे समस्त विद्याधरोंने अपना-अपना जन्म सफल माना ॥२८॥
१. चेतसा म.। २. नुत्कृष्टसंगरे म.। ३. प्रभुतपाणयः म. । ४. यावद्धनवती म..
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