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द्वापञ्चाशत्तमः सर्गः
वादित्रध्वनयो धीरा क्षुभिताब्धिस्वनोपमाः । प्रभूताः प्रादुरभवंस्तथैवाभयघोषणाः ॥ ८६ ॥ स्वसैन्यं परसैन्यं च संन्यस्तस्वभयं ततः । अनुक्तमप्यभूदेत्य वासुदेवस्य शासने ॥८७॥ नृपो दुर्योधनो द्रोणस्तथा दुश्शासनादयः । निर्विण्णा विदुरस्यान्ते जैनीं दीक्षां प्रपेदिरे ॥ ८८ ॥ कर्णः सुदर्शनोद्याने दीक्षां दमवरान्तिके । जग्राह रणदीक्षान्ते निर्वाणफलदायिनीम् ॥८९॥ तत्सुवर्णाक्षरं यत्र कर्णकुण्डलमस्यजत् । कर्णः कर्णसुवर्णाख्यं स्थानं तत्कीर्तितं जनैः ॥९०॥ गतो मातलिरापृच्छ्य सेवेयं स्वामिनोऽन्तिकम् । यादवाः शिविरस्थानं निजं जग्मुः सपार्थिवाः ॥ ९१ ॥
पृथ्वीच्छन्दः
निरीक्ष्य मधुसूदनेन युधि मारते मागधं हतं दिनकृदम्बुधावकृत मज्जनं सज्जनः । शुचा प्रकरोदनादिव दधन्मुखं दिग्मुखैर्जपाकुसुमपाटलं स्विच जलाअलेर्दित्सया ॥९२॥ व्रजन्ति खलु जन्तवः कृतशुभोदये संपदा प्रचण्डपुरुषान्तराक्रमणकारिणीं तरक्षये । भजेद्विपदमप्यतो जनमते जना निर्मलं कुरुध्वमपुनर्भवप्र भवहेतुभूतं तपः ॥ ९३ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती जरासन्धवधवर्णनो नाम द्वापञ्चाशत्तमः सर्गः ॥ ५२ ॥
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और भगवान् नेमिनाथ, अर्जुन तथा सेनापति अनावृष्टिने भी अपने-अपने शंख फूंके ॥ ८५॥ क्षोभको प्राप्त समुद्रके शब्दके समान बाजोंके गम्भीर शब्द होने लगे और चारों ओर अभय घोषणाएँ प्रकट की गयीं ॥ ८६ ॥ जिससे स्वसेना और परसेना अपना-अपना भय छोड़ बिना कुछ कहे हीचुपचाप आकर श्रीकृष्णकी आज्ञाकारिणी हो गयीं ||८७|| राजा दुर्योधन, द्रोण तथा दुःशासन आदिने संसारसे विरक्त हो मुनिराज विदुरके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥८८॥ राजा कर्णंने भी रणदीक्षाके बाद सुदर्शन नामक उद्यानमें दमवर मुनिराजके समीप मोक्षफलको देनेवाली दीक्षा ग्रहण कर ली ॥८९॥ राजा कर्णने जिस स्थानपर सुवर्णके अक्षरोंसे भूषित कणकुण्डल छोड़े थे उस स्थानको लोग कर्ण-सुवर्णं कहने लगे ॥९०॥ 'क्या मैं अपने स्वामीको सेवा करू ?' यह पूछकर मातलि अपने स्वामी इन्द्र के पास चला गया और यादव भी अन्य राजाओंके साथ अपनेअपने शिविर में चले गये ॥९१॥
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उस समय सूर्य अस्त हो गया और सन्ध्याकी लालिमा दशों दिशाओंमें फैल गयी, उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो संग्राम में श्रीकृष्ण द्वारा मारे गये जरासन्धको देखकर सहृदय सूर्य पहले तो शोकके कारण खूब रोया इसलिए उसका मुख जपाकुसुमके समान लाल हो गया और पश्चात् जलांजलि देनेकी इच्छासे उसने समुद्र में मज्जन किया है ॥ ९२ ॥ गोतम स्वामी कहते हैं कि ये संसारके प्राणी, शुभ कर्मका उदय होनेपर बड़े से बड़े पुरुषोंपर आक्रमण करनेवाली सम्पदा
प्राप्त होते हैं और शुभ कर्मका उदय नष्ट होनेपर विपत्तियाँ भी भोगते हैं इसलिए हे भक्तजनो ! जनमत में स्थिर हो मोक्ष प्राप्तिमें कारणभूत निर्मल तप करो ॥९३॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें जरासन्धके वधका वर्णन करनेवाला बावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||५२ ||
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