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हरिवंशपुराणे
गर्मेश्वरोऽहमन्येषामलङ्कयो महतामपि । प्रारब्धो जेतुमल्पेन गर्भादिक्लेशिना कथम् ॥७३॥ मज्जेतापि यदीदृक्षो दृष्टोऽत्र विधिना ततः । किमर्थं क्लेशितो बाल्ये गोकुले धिग्विधीहितम् ॥७४॥ लोकान्धीकरणे दक्षां धीरधैर्य विलोपिनीम् । बन्धकीमिव धिग्लक्ष्मीं परसंक्रमकाङ्क्षिणीम् ॥७५॥ ध्यायन्नित्यादि निश्चित्य मृत्युकालमुपस्थितम् । प्रकृत्यैव जरासन्धः कृष्णमित्याह निर्भयः ॥ ७६ ॥ क्षिप चक्रं किमर्थं त्वं गोप ! कालमुपेक्षसे । कालस्योरक्षेपको मुग्ध ! दीर्घसूत्री विनश्यति ॥७७॥ इत्युक्तस्तं प्रति प्राह प्रकृत्या प्रश्रयी हरिः । चक्रवत्यहमुद्भूतः शासने मम तिष्ठ मोः ॥७८॥ अपकारे प्रवृत्तस्त्वमस्माकं यद्यपि स्फुटम् । तथापि मृष्यतेऽस्माभिर्नतिमात्रप्रसादिभिः ॥७९॥ तथोदितः स तं प्राह प्रसभं 'गर्वनिर्भरः । चक्रं नालातचक्रं मे किमनेन स्मयं गतः ॥८०॥ अथवा दृष्ट कल्याणः स्वल्पेनाल्पः स्मयी भवेत् । न महान् दृष्टकल्याणः सस्मयो 'महतापि हि ॥ ८१ ॥ सह दशा चक्रे चक्रेणानेन च त्वकम् । नृपचक्रेण त्वामाशु समुद्रे प्रक्षिपामि भोः ||२|| इत्युक्ते कुपितश्चक्री चक्रं प्रभ्राम्य सोऽमुचत् । भूभृतस्तेन गत्वारं वक्षोभित्तिरभिद्यत ॥८३॥ आगतं च पुनः पाणि चक्रपाणेः क्षणेन तत् । प्रयुक्तस्य कृतार्थस्य कालक्षेपो हिं निष्फलः ॥८४॥ पाञ्चजन्यं हरिः शङ्खं दध्मौ यदुमनोहरम् । नेमिपार्थबलाग्रण्यो गण्या दष्मु निजाम्बुजम् ||८५||
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जाता है वह सत्य ही कहा जाता है रंचमात्र भी अन्यथा नहीं है || ७२ || मैं गर्भ से ही ईश्वर था और बड़ेसे-बड़े लोगों के लिए अलंघनीय था फिर भी गर्भके प्रारम्भसे ही क्लेश उठानेवाले एक छोटे-से व्यक्ति के द्वारा क्यों जीता जा रहा हूँ ? || ७३|| यदि ऐसा साधारण व्यक्ति भी, विधाताके द्वारा मेरा जीतनेवाला देखा गया था तो फिर इसे बाल्य अवस्था में गोकुल में नाना क्लेश क्यों उठाने पड़े ? इसलिए विधिकी इस चेष्टाको धिक्कार ||७४ || जो लोगोंको अन्धा बनानेमें दक्ष है, धीर-वीर मनुष्यों के भी धैर्यंको नष्ट करनेवाली है तथा जो वेश्या के समान अन्य पुरुषके पास जानेको इच्छा रखती है ऐसी इस लक्ष्मीको धिक्कार है ||७५ || इत्यादि विचार करते-करते जरासन्धको यद्यपि यह निश्चय हो चुका था कि हमारा मरणकाल आ चुका है तथापि वह प्रकृति से निर्भय होने के कारण कृष्णसे इस प्रकार बोला || ७६ || अरे गोप ! तू चक्र चला, व्यर्थ ही समयकी उपेक्षा क्यों कर रहा है ? अरे मूर्ख ! समयकी उपेक्षा करनेवाला दीर्घसूत्री मनुष्य अवश्य ही नष्ट होता है ||७७|| जरासन्धके इस प्रकार कहनेपर स्वभावसे विनयी कृष्णने उससे कहा कि मैं चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका हूँ इसलिए आजसे मेरे शासन में रहिए || ७८ || यद्यपि यह स्पष्ट है कि तुम हमारा अपकार करने में प्रवृत्त हो तथापि हम नमस्कार मात्रसे प्रसन्न हो तुम्हारे अपकारको क्षमा किये देते हैं ||७९|| श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर अहंकारसे भरे हुए जरासन्धने जोर देकर कहा - अरे यह चक्र तो मेरे लिए अलात चक्रके समान है तू इससे अहंकारको क्यों प्राप्त हो गया है ? ॥८०॥ अथवा जिसने कभी कल्याण देखा ही नहीं ऐसा क्षुद्र मनुष्य थोड़ा-सा वैभव पाकर ही अहंकार करने लगता है और जिसने कल्याण देखा है ऐसा महान् पुरुष बहुत भारी वैभव पाकर भी अहंकार नहीं करता ॥८१॥ मैं तुझे यादवोंके साथ, इस चक्र के साथ तथा तेरी सहायता करने - वाले अन्य राजाओंके साथ शीघ्र ही समुद्रमें फेंकता हूँ || ८२|| जरासन्धके इस प्रकार कहने पर चक्रवर्ती कृष्णने कुपित हो घुमाकर चक्ररत्न छोड़ा और उसने शीघ्र ही जाकर जरासन्धकी वक्षःस्थलरूपी भित्तिको भेद दिया ॥ ८३ ॥ वह चक्ररत्न जरासन्धको मारकर क्षण भरमें पुनः कृष्ण के हाथमें आ गया सो ठीक ही है क्योंकि भेजे हुए व्यक्तिके कृतकार्य हो चुकनेपर कालक्षेप करना निष्फल है || ८४ ॥ कृष्णने यादवोंके मनको हरण करनेवाला अपना पांचजन्य शंख फूँका १. क्लेदिना म । २. वैश्यामिव । ३. गर्भनिर्भर: म । ४. महतामपि म, ङ, ख । ५. वक्रेण ङ ६. प्रभृत्य ङ । ७. प्रभूतः म. 1
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