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हरिवंशपुराणे कृष्णेनामिमुखीभूता मागधस्य सुताः परे। शूरा मृत्युमुखं नीतास्तेऽर्धचन्द्रः शिरश्छिदा ॥४५! ततः स्वयं जरासन्धः कृष्णस्यामिमुखं रुषा । दधाव धनुरास्फाल्य रथस्थो रथवर्तिनः ॥४६॥ अन्योन्याक्षेपिणोर्युद्धं तयोरुद्धतवीर्ययोः । अस्पैः स्वामाविकैर्दिव्यैरभूदस्यन्तभीषणम् ॥४॥ अस्त्रं नागसहस्राणां सृष्टप्रज्वलनप्रभम् । माधवस्य वधायासौ क्षिप्रं चिशेप मागधः ॥४॥ अमूढमानसः शौरि गनाशाय गारुडम् । अस्त्रं चिक्षेप तेनाशु ग्रस्तं नागास्त्रमग्रतः ॥१९॥ अस्त्रं संवर्तकं रौद्रं विससर्ज स मागधः । तन्महाश्वसनास्त्रेण माधवोऽपि निराकरोत् ॥५०॥ वायव्यं व्यमुचच्छस्त्रमस्त्रविन्मगधेश्वरः । अन्तरिक्षेण वास्त्रेण व्याक्षिपत्तदधोक्षजः ॥५१॥ अग्निसात्करणे सक्तमस्त्रमाग्नेयमुज्ज्वलम् । मागधक्षिप्तमाक्षिप्तं वारुणास्त्रेण शौरिणा ॥५२॥ अस्त्रं वैरोचनं मुक्तं मागधेन्द्रेण रोषिणा। उपेन्द्रेणापि तदुरान्माहेन्द्रास्त्रेण दारितम् ॥५३॥ राक्षसास्त्रं रिपुक्षिप्तं क्षिप्रं नारायणो रणे । क्षिप्त्वा नारायणास्त्रेण सोऽरीणां तिमाहरत् ॥५४॥ तामसास्त्रं परिक्षिप्तं मास्करास्त्रेण सोऽमिनत् । अश्वग्रीवास्त्रमत्युग्रं दागब्रह्मशिरसारुणत् ॥५५॥ दिव्यान्यन्यानि चास्त्राणि क्षिप्तानि प्रतिशत्रुणा । प्रतिक्षिप्य निरायामो वासुदेवोऽवतिष्ठते ॥५६॥ तथा व्यर्थप्रयासोऽसौ क्षितिक्षिप्तशरासनः । रक्ष्यं यक्षसहस्रेण चक्ररस्नमचिन्तयत् ॥५७।।
चिरकालके लिए यमराजके घर भेज दिया ।।४४।। जरासन्धके शेष शूर-वीर पुत्र युद्ध के लिए सामने आये तो अर्धचन्द्र बाणोंके द्वारा शिर काटनेवाले कृष्णने उन्हें मृत्युके मुखमें पहुंचा दिया ।।४५।।
तदनन्तर स्वयं जरासन्ध, क्रोधवश धनुष तानकर रथपर सवार हो, रथपर बैठहए कृष्णके सामने दौड़ा ।।४६।। दोनों ही एक-दूसरेके प्रति तिरस्कारके शब्द कह रहे थे तथा दोनों ही उत्कट वीर्यके धारक थे इसलिए दोनोंमें स्वाभाविक एवं दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे भयंकर युद्ध होने लगा ॥४७|| उधर जरासन्धने श्रीकृष्णको मारनेके लिए शीघ्र हो अग्निके समान देदीप्यमान प्रभाका धारक नागास्त्र छोड़ा ॥४८॥ इधर सावधान चित्तके धारक कृष्णने नागास्त्रको नष्ट करनेके लिए गारुड़ अस्त्र छोड़ा और उसने शोघ्र ही आगे बढ़कर उस नागास्त्रको ग्रस लिया ।।४९।। जरासन्धने प्रलयकालके मेघके समान भयंकर वर्षा करनेवाला संवतंक अस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्णने भी महाश्वसन नामक अनके द्वारा तीव्र आँधी चलाकर उसे दूर कर दिया ॥५०॥ अस्त्रोंके प्रयोगको जाननेवाले जरासन्धने वायव्य अत्र छोड़ा तो श्रीकृष्णने अन्तरीक्ष अनके द्वारा उसका तत्काल निराकरण कर दिया ॥५१॥
जरासन्धने जलाने में समर्थ देदीप्यमान आग्नेय बाण छोड़ा तो कृष्णने वारुणालके द्वारा उसे दूर कर दिया ॥५२।। क्रोधमें आकर जरासन्धने वैरोचन शस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्णने माहेन्द्र अखसे उसे दूरसे ही नष्ट कर दिया ॥५३|| शत्रुने युद्ध में राक्षसबाण छोड़ा तो कृष्णने शीघ्र ही नारायण अस्त्र चलाकर शत्रुओंके छक्के छुड़ा दिये ॥५४॥ जरासन्धने तामसान चलाया तो कृष्णने भास्कर अनके द्वारा उसे नष्ट कर दिया । और जरासन्धने अश्वग्रीव नामक अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र चलाया तो कृष्णने ब्रह्मशिरस नामक शस्त्रसे उसे तत्काल रोक दिया॥५५॥ इनके सिवाय शत्रुने और भी दिव्य अस्त्र चलाये परन्तु कृष्ण उन सबका निराकरण कर ज्योंके-त्यों स्थिर खड़े रहेउनका बाल भी बांका नहीं हुआ ॥५६॥
इस प्रकार जब जरासन्धका समस्त प्रयास व्यर्थ हो गया तब उसने धनुष पृथ्वीपर फेंक दिया और हजार यक्षोंके द्वारा रक्षित चक्ररत्नका चिन्तवन किया ॥५७॥ चिन्तवन
३. उपेन्द्रेण च दारितं ख.।
४. शौरिणां म.।
१. भीषणः म.। २. व्याक्षिप्यत्तदधोक्षजः क.। ५. चिक्षेपारुणदारुणः म.। ६.ऽधितिष्ठते म.।
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