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हरिवंशपुराणे भक्कैस्तदर्धगणनैर्गणबद्धदेवैराज्ञाकरैः सुखमसेवत सेव्यमानः ॥५२॥ शाङ्गी स षोडशसहस्रवराङ्गनानां देवाङ्गनाललितविभ्रमहारिणोनाम् । संधैः क्रमेण रतियूपनिषेविताङ्गो रेमे तदर्धगणनैस्तु हली सुदारैः ॥५३॥
मालिनीच्छन्दः हिमशिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरत्सु प्रिययुवतिसहाया यादवा द्वारिकायाम् । जिनमतकृतधर्मा योग्यदेशेषु मोगैरविरतरतिरागा रेमिरे सार्वभौमाः ॥५४॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती कृष्णविजयवर्णनो नाम
त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः ॥५३॥
आज्ञाकारी, भक्त, गणवद्ध देव जिनको निरन्तर सेवा करते थे ऐसे श्रीकृष्ण सुखका उपभोग करते थे ॥५२॥ रतिकाल में देवांगनाओंके समान सुन्दर हाव-भावोंसे मनको हरनेवाली सोलह हजार स्त्रियाँ श्रीकृष्णके शरीरकी सेवा करती थीं और उनसे आधी अर्थात आठ हजार उत्तम स्त्रियाँ बलदेवके शरीरकी सेवा करती थीं। श्रीकृष्ण और बलदेव अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ यथेच्छ क्रीड़ा करते थे ॥५३|| गौतम स्वामी कहते है कि जो जिन-धर्मको धारण करनेवाले थे, जिनके रति और रागमें कभी व्यवधान नहीं पड़ता था, प्रिय युवतियाँ ही जिनकी सहायक थीं और जो समस्त भूमिके अधिपति थे ऐसे यादव लोग, द्वारिकापुरोमें हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा और शरद् ऋतुके योग्य स्थानोंमें मनचाहे भोग भोगते हुए क्रीड़ा करते थे ॥५४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
कृष्णविजयका वर्णन करनेवाला तिरपनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।।५।।
१.गुणनेः क., ख., ग.,घ.।
२. योगे: म..
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