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हरिवंशपुराणे समस्तबलसंयुक्तौ प्रतीची बलकेशवौ । प्रयातौ प्रमदापूर्णौ पूर्णसर्वमनोरथौ ॥२९॥ 'आनन्दं ननृतुर्यत्र यादवा मागधे हते । आनन्दपुरमित्यासीत्तत्र जैनालयाकुलम् ॥३०॥ ततश्चक्रमहं कृत्वा सर्वरनान्वितो हरिः । दक्षिणं मारतं जिग्ये सदेवासुरमानुषम् ॥३१॥ वरष्टामिरिष्टाथैसे व्यमानोऽनुवासरम् । जितजेयो ययौ कृष्णः स कोटिकशिला प्रति ॥३२॥ यतस्तस्यामदारायामनेका ऋषिकोटयः । सिद्धास्ततः प्रसिद्धात्र को कोटिकशिला शिला ॥३३॥ शिलायां तत्र कृत्वादी पवित्रायां बलिक्रियाम् । दोामुक्षिपतिस्मासी तां विष्णुश्चतुरङ्गलम् ॥३४॥ सा शिला योजनोच्छ्राय समायोजनविस्तृता । अर्धभारतवर्षस्थदेवतापरिरक्षिता ॥३५॥ तदबाहनोर्ध्वमुरिक्षता त्रिपृष्ठेन शिला पुरा । मूर्द्धदघ्नं द्विपृष्ठेन कण्ठदनं स्वयंभुवा ॥३६॥ वक्षोद्वयमुरिक्षप्ता च पुरुषोत्तमचक्रिणा । क्षिप्ता पुरुषसिंहेन हृदयावधि हारिणी ॥३७॥ पुण्डरीकः कटीमात्रमूरुद्रघ्नं हि दत्तकः । जानुमानं च सौमित्रिः कृष्णोऽधाच्चतुरङ्गलम् ॥३८॥ प्रधानपुरुषादीनां सर्वेषां हि युगे युगे। मिद्यते कालभेदेन शक्तिः शक्तिमतामपि ॥३९॥ शिलाबलेन विज्ञातो महाकायबलो बलैः । सोऽनुयातो ययौ चक्री द्वारिका प्रतिबान्धवैः ॥४०॥ प्रविष्टश्च विशिष्टानामाशीभिरभिनन्दितः । द्वारिका द्वारकान्तां स कृतशोमा दिवं यथा ॥४१॥ यथायोग्यं समोग्यास्ते भूनभोयानभूभृतः । प्रासादेषु स्थिताः सुस्था द्वारिकायां यथाविधि ॥४२॥
तदनन्तर जिनके सर्व मनोरथ पूर्ण हो गये थे तथा जो हर्षसे परिपूर्ण थे ऐसे बलदेव और नारायणने समस्त सेनाको साथ ले पश्चिम दिशाकी ओर प्रस्थान किया ॥२९॥ जरासन्धके मारे जानेपर यादवोंने जिस स्थानपर आनन्द-नृत्य किया था वह स्थान आनन्दपुरके नामसे प्रसिद्ध और जेन-मन्दिरोंसे व्याप्त हो गया ॥३०॥ तदनन्तर सब रत्नोंसे सहित नारायणने, चक्ररत्नको पूजा कर देव, असुर और मनुष्योंसे सहित दक्षिण भरतक्षेत्रको जीता ॥३१॥ लगातार आठ वर्षों तक प्रतिदिन मनोवांछित पदार्थोंने जिनकी सेवा की थी और जीतने योग्य समस्त राजाओंको जिन्होंने जीत लिया था ऐसे श्रीकृष्ण अब कोटिक शिलाकी ओर गये ॥३२॥ चूंकि उस उत्कृष्ट शिलापर अनेक करोड़ मुनिराज सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हुए हैं इसलिए वह पृथ्वीमें कोटिक शिलाके नामसे प्रसिद्ध है ॥३३॥ श्रीकृष्णने सर्व-प्रथम उस पवित्र शिलापर पूजा की और उसके बाद अपनो दोनों भुजाओंसे उसे चार अंगुल ऊपर उठाया ॥३४॥ वह शिला एक योजन ऊंची, एक योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी है तथा अर्ध भरतक्षेत्र में स्थित समस्त देवोंके द्वारा सुरक्षित है ॥३५॥ पहले त्रिपृष्ठ नारायणने इस शिलाको जहांतक भुजाएँ ऊपर पहुंचती हैं वहांतक उठाया था। दूसरे द्विपष्ठने मस्तक तक, तीसरे स्वयम्भने कण्ठ तक, चौथे पुरुषोत्तमने वक्षःस्थल तक, पांचवें नृसिंहने हृदय तक, छठे पुण्डरीकने कमर तक, सातवें दत्तकने जाँघों तक, आठवें लक्ष्मणने घुटनों तक और नवें कृष्ण नारायणने उसे चार अंगुलं तक ऊपर उठाया था ।।३६-३८।। क्योंकि युग-युगमें कालभेद होनेसे प्रधान पुरुषको आदि लेकर सभी शक्तिशाली मनुष्योंकी शक्ति भिन्न-भिन्न रूप होती आयी है ॥३९॥ शिला उठानेके बलसे समस्त सेनाने जान लिया कि श्रीकृष्ण महान् शारीरिक बलसे सहित हैं। तदनन्तर चक्ररत्नको धारण करनेवाले श्रीकृष्ण बान्धवजनोंके साथ द्वारिकाकी ओर वापस आये ॥४०॥ वहां वृद्धजनोंने नाना प्रकारके आशीर्वादोंसे जिनका अभिनन्दन किया था ऐसे श्रीकृष्ण नारायणने मनोहर गोपुरोंसे सुन्दर एवं स्वर्गके समान सजी हुई द्वारिकापुरीमें प्रवेश किया ॥४१॥ जो भूमिगोचरी और विद्याधर राजा उनके
१. आनन्दे ननदु-म.। २. सेवमानो नु वासरम् म.। ३. लोके कोटिशिला शिला म.। ४. योजनोच्छाया समा- म.। ५. सानुयातो म..
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