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द्वापञ्चाशत्तमः सर्गः
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चिन्तानन्तरमेवात्र सहस्रकिरणप्रभम् । चक्रं दिकचक्रविद्योति मागधस्य करे स्थितम् ॥५॥ नानास्त्रव्यर्थताक्रुद्धश्चक्रं 'प्रभ्रश्य मागधः । माधवं प्रतिचिक्षेप क्षिप्रं भ्रूभङ्गभीषणः ॥५९॥ नभस्यागच्छतस्तस्य विच्छायीकृतभास्वतः । यथास्वं चिक्षिपुः सर्वे चक्राण्यन्येऽपि मभृतः ॥६॥ शाङ्गो शक्तिगदाद्यानि हलं समुसलं हली । गदा वृकोदरः पार्थो नानास्त्राण्यत्रपार्थिवः ॥६१॥ सेनानीः परिघं शक्ति युधिष्ठिरनृपस्तथा । तस्य तु प्रतिघातार्थमुद्गीर्णाशीसमं ययौ ॥६२॥ समुद्र विजयाक्षोभ्यप्रभृतिभ्रातरो भृशम् । अप्रमत्ता महास्त्राणि प्रतिचक्रं प्रचिक्षिपुः ॥६॥ नेमीशस्त्ववधिज्ञातमाविकार्यगतिस्थितिः । चक्रस्याभिमुखश्चक्रे विष्णुनैव सह स्थितिम् ॥६॥ वार्यमाणं तु तच्चक्रमस्वचक्रेण भूभृताम् । विस्फुरद्विस्फुलिङ्गौघं शनैरागत्य मित्रवत् ॥६५॥ सह प्रदक्षिणीकृत्य भगवन्नमिना हरिम् । तत्करे दक्षिणे तस्थौ शङ्खचक्राशाङ्किते ॥६६॥ ब्योम्नि दुन्दमयो नेदरपतन्पुष्पवृष्टयः । नवमी वासुदेवोऽयमिति देवा जस्तदा ॥६॥ सुगन्धितायुभिः सार्धमनुकूलरलं तदा । हृदयैर्यदुवीराणां समुच्छ्वसितमायुधम् ॥६८॥ 'चक्रहस्तं हरिं दृष्टा संयुगे मगधाधिपः । दध्यौ चक्रपरावृत्तिरन्यथेयमभूदिति ॥१९॥ चक्रविक्रमसंभारसमाक्रान्तदिगन्तरः । त्रिखण्डाधिपतिश्चण्डो जातः खण्डितपौरुषः ॥१०॥ चतुरङ्गबलं कालः पुत्रा मित्राणि पौरुषम् । कार्यकृत्तावदेवात्र यावद्दवबलं परम् ॥७॥ दैवे तु विकले कालपौरुषादिनिरर्थकः । इति यत्कथ्यते विद्भिस्तत्तथ्यमिति नान्यथा ॥२॥
करते ही सूर्यके समान देदीप्यमान तथा दिशाओंके समूहको प्रकाशित करनेवाला चक्ररत्न जरासन्धके हाथमें आकर स्थित हो गया ॥५८॥ नाना शस्त्रोंके व्यर्थ हो जानेसे जिसका क्रोध बढ़ रहा था तथा जो भृकुटिके भंगसे अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था, ऐसे जरासन्धने घुमाकर शीघ्र ही वह चक्ररत्न कृष्णकी ओर फेंका ।।५९|| जिसने अपनी कान्तिसे सूर्यको फीका कर दिया था ऐसे आकाश में आते हुए उस चक्ररत्नको नष्ट करनेके लिए कृष्णपक्षके अन्य समस्त राजाओंने भी यथायोग्य चक्र छोड़े ॥६०॥ श्रीकृष्ण शक्ति तथा गदा आदि लेकर, बलदेव हल और मूसल लेकर, भीमसेन गदा लेकर, अस्त्रविद्याके राजा अर्जुन नाना अस्त्र लेकर, सेनापति-अनावृष्टि परिघ लेकर और युधिष्ठिर प्रकट हुए साँपके समान शक्तिको लेकर आगे आये ॥६१-६२।। समुद्रविजय तथा अक्षोभ्य आदि भाई अत्यन्त सावधान होकर उस चक्ररत्नकी ओर महा अस्त्र छोड़ने लगे ॥६३।। किन्त भगवान नेमिनाथ, अवधि-ज्ञानके द्वारा आगामी कार्यको गतिविधिको अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे कृष्णके साथ ही चक्ररत्नके सामने खड़े रहे ॥६४॥ राजाओंके अस्त्रसमूह जिसे रोक रहे थे तथा जिससे देदीप्यमान तिलगोंके समूह निकल रहे थे ऐसा वह चक्ररत्न मित्रके समान धीरेधोरे पास आया और भगवान् नेमिनाथके साथ-साथ कृष्णकी प्रदक्षिणा देकर शंख, चक्र और अंकुशसे चिह्नित कृष्णके दाहिने हाथमें स्थित हो गया ॥६५-६६।। उसी समय आकाशमें दुन्दुभि बजने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी, और 'यह नौवां नारायण प्रकट हुआ है' इस प्रकार देव कहने लगे ॥६७|| अनुकूल एवं सुगन्धित वायु बहने लगी तथा वीर यादवोंके अस्त्र उनके हृदयोंके साथसाथ उच्छ्वसित हो उठे ॥६८॥ संग्राममें कृष्णको चक्र हाथमें लिये देख, जरासन्ध इस प्रकार विचार करने लगा कि हाय यह चक्र चलाना भी व्यर्थ हो गया ॥६९।। चक्ररत्न और पराक्रमके समूहसे जिसने समस्त दिशाओंको व्याप्त कर रखा था तथा जो तीन खण्डका शक्तिशाली अधिपति था ऐसा मैं आज पौरुषहीन हो गया-मेरा पुरुषार्थ खण्डित हो गया ||७०|| 'जबतक देवका बल प्रबल है तभी तक चतुरंग सेना, काल, पुत्र, मित्र एवं पुरुषार्थ कार्यकारी होते हैं ।।७१॥ और दैवके निबंल होनेपर काल तथा पुरुषार्थ आदि निरर्थक हो जाते हैं...' यह जो विद्वानों द्वारा कहा १. प्रणम्य म.। २. मागधं म.। ३. चक्रहस्तहरि म.।
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