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एकपञ्चाशत्तमः सर्गः
५९५ युधिष्ठिरोऽत्र शल्येन मीमो दुश्शासनेन तु । सहदेवः शकुनिना ह्युलूको नकुलेन हि ॥३०॥ दुर्योधनार्जुनौ योद्धं लग्नौ युद्ध ततस्तयोः । बभूव भूतवित्रासी शरसन्धानदक्षयोः ॥३१॥ निहताः पाण्डवैः केचिद् धृतराष्ट्रशरीरजाः । रणे दुर्योधनाद्यास्तु केचिजीवन्मृताः कृताः ॥३२॥ आकर्णाकृष्टचापौधैः कर्णोऽभिमुखमागतान् । योधान् बिभेद संग्रामे कृष्णपक्षाननेकशः ॥३३॥ द्वन्द्वयुद्धे तदा जाते बहुभूतक्षयावहे । सेनापत्योरभद्रौद कदनं विविधायुधैः ॥३४॥ हिरण्यनाभवीरेण स सप्तमिः शरैः शतैः । नवत्या सप्तविंशत्याविद्धोऽनावृष्टिराहवे ॥३५॥ प्रजघान शतेनासौ सहस्रेण च पत्रिणाम् । अनावृष्टिर्हिरण्याभं कुशलः प्रतिकर्मणि ॥३॥ यादवस्य ध्वजं तुङ्गं चिच्छेद रुधिरात्मजः । सोऽपि चास्य बिभेदाशु चापं छत्रं च सारथिम् ॥३७॥ धनुरन्यदुपादाय शरवर्ष ववर्ष सः । परिघं तु यदुः क्षिप्त्वा रथं शत्रोरपातयत् ॥३८॥ खड्गखेटकहस्तं तं आपतन्तमरिय॑दुः । खड्गखेटकहस्तोऽगाथादुत्तीर्य संमुखः ॥३९॥ प्रहारवञ्चनादानलाघवातिशयात्मनोः । असियुद्धममृद्घोरं सेनापत्योस्ततस्तयोः ॥४०॥ वार्णयखड्गधातेन प्रदत्तेन भुजे रिपुः । छिन्नबाहुद्वयोरस्कः पपात वसुधातले ॥४१॥ हते सेनापतौ तन्त्र चतुरङ्गबलं दुतम् । विद्रुतं शरणं प्राप्तं जरासन्धं महारणे ॥३२॥ तुष्टोऽनावृष्टिरप्याशु रथमारुह्य सैनिकैः । स्तूयमानो गतोऽभ्याशं रामकेशवयोस्ततः ॥४३॥ बलकेशववीराभ्यां वृषहस्तिकपिध्वजाः । चक्रव्यूहस्य भेत्तारः परिष्वक्ता महौजसः ॥४४॥
समर्थ है ? ।।२९।। युधिष्ठिर शल्यके साथ, भीम दुःशासनके साथ, सहदेव शकुनिके साथ और उलूक नकुलके साथ युद्ध कर रहे थे । ॥३०।। तदनन्तर दुर्योधन और अर्जुन युद्ध करनेके लिए तत्पर हुए सो बाणोंके चढ़ानेमें चतुर उन दोनोंका भूतोंको भयभीत करनेवाला भयंकर युद्ध हुआ ॥३१॥ पाण्डवोंने युद्ध में धृतराष्ट्र के कितने ही पुत्रोंको मार डाला और दुर्योधन आदि कितने ही पुत्रोंको जीवित रहते हुए भी मृतकके समान कर दिया ॥३२।। कर्णने, युद्ध में आये हुए कृष्णके पक्षके अनेक योद्धाओंको कान तक खोंचे हए बाणोंके समहसे नष्ट कर डाला ||३३|| उस समय जब दोनों ओरसे अनेक प्राणियोंका क्षय करनेवाला द्वन्द्व युद्ध हो रहा था तब दोनों पक्षके सेनापतियोंका नाना प्रकारके शस्त्रोंसे भयंकर यद्ध हा ||३४|| वीर हिरण्यनाभने यदधमें यादव सेनापति अनावष्टिको सात-सौ नब्बे बाणों द्वारा सत्ताईस बार घायल किया॥३५|| और बदला लेने में कुशल हिरण्यनाभने भी एक हजार बाणों द्वारा उसे सौ बार घायल किया ॥३६।। रुधिरके पुत्र हिरण्यनाभने अनावृष्टिकी ऊंची ध्वजा छेद डाली और अनावृष्टिने शीघ्र ही उसके धनुष, छत्र और सारथिको भेद डाला ॥३७।। हिरण्यनाभने दूसरा धनुष लेकर बाणोंकी वर्षा शुरू की और अनावृष्टिने परिघ फेंककर शत्रुका रथ गिरा दिया ॥३८।। अब हिरण्यनाभ तलवार और ढाल हाथमें ले सामने आया तो अनावृष्टि भी तलवार और ढाल हाथमें ले रथसे उतरकर उसके सामने गया ।।३९।। तदनन्तर प्रहारके बचाने और प्रहारके देनेको बहुत भारी कुशलतासे युक्त दोनों सेनापतियोंमें भयंकर खड्ग
युद्ध होता रहा ॥४०॥
____ अन्तमें अनावृष्टिने हिरण्यनाभकी भुजाओंपर तलवारका घातक प्रहार किया जिससे उसकी दोनों भुजाएँ कट गयीं, छाती फट गयो और वह प्राणरहित हो पृथ्वीपर गिर पड़ा ।।४१।। सेनापतिके मरनेपर उसको चतुरंग सेना शीघ्र ही भागकर युद्ध में जरासन्धकी शरणके पहुँची ॥४२।। तदनन्तर सैनिक लोग जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसा अनावृष्टि, सन्तुष्ट हो शीघ्र ही रथपर बैठकर बलदेव और कृष्णके समीप गया ।।४३।। बलदेव और श्रीकृष्णने चक्रव्यूहको
१. निहिताः म. । २. भयावहं । ३. जरासंधमहारणे म.। ४. समीपं म. ।
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