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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः विवाहमङ्गलं दृष्ट्वा द्रौपद्यर्जुनयोर्नृपाः। 'प्रयाताः पाण्डवैर्युक्तः स्थानं दुर्योधनोऽप्यगात् ॥१७॥ अर्धराज्यविभागेन ते हास्तिनपुरे पुनः । तस्थुर्दुर्योधनाद्याश्च पाण्डवाश्च यथायथम् ॥१८॥ आनाय्यानाय्यवृत्तोऽसौ ज्येष्ठं कन्याः पुरातनीः । विवाह्य सुखिताश्चक्रे मीमसेनो निजोचिताः॥१४९॥ स्नुषाबुद्धिरभूत्तस्यां ज्येष्ठयोरर्जुन स्त्रियाम् । द्रौपद्यां यमलस्यापि मातरीवानुवर्तनम् ॥१५०॥ तस्याः श्वसुरबुद्धिस्तु पाण्डाविव तयोरभूत् । अर्जुनप्रेमसंरुद्धमौचित्यं देवरद्वये ॥१५॥ अत्यन्तशुद्ध वृत्तेषु येऽभ्याख्यानपरायणाः । तेषां तत्प्रमवं पापं को निवारयितुं क्षमः ॥१५२॥ सद्भूतस्यापि दोषस्य परकीयस्य माषणम् । पापहेतुरमोघः स्यादसद्भूतस्य किं पुनः ॥१५॥ प्राकृतानामपि प्रीत्या समानधनता धने । न स्त्रीषु त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धानां किमुच्यते ॥१५॥ महापुरुषकोटीस्थकूट दोषविमाषिणाम् । असतां कथमायाति न जिह्वा शतखण्डताम् ॥१५५॥ वक्ता श्रोता च पापस्य यन्नात्र फलमश्नुते । तदमोघममुत्रास्य वृद्धपर्थमिति बुद्धयताम् ।।१५६॥ वक्तः श्रोतुश्च सद्बुद्धया यथा पुण्यमयी श्रुतिः । श्रेयसे विपरीताय तथा पापमयी श्रतिः ॥१५७॥
अर्जुनके द्वारा धारण की हुई अत्यधिक देदीप्यमान होने लगी ॥१४६॥ राजा लोग द्रौपदी और अर्जुनका विवाह-मंगल देखकर अपने-अपने स्थानपर चले गये और दुर्योधन भी पाण्डवोंको साथ ले हस्तिनापुर पहुंच गया ॥१४७॥ दुर्योधनादि सौ भाई और पाण्डव आधे-आधे राज्यका विभाग कर पुनः पूर्वकी भाँति रहने लगे ॥१४८॥ उज्ज्वल चारित्रके धारक युधिष्ठिर तथा भीमसेनने पहले अज्ञातवासके समय अपने-अपने योग्य जिनकन्याओंको स्वीकृत करनेका आश्वासन दिया था उन्हें बुलाकर तथा उनके साथ विवाह कर उन्हें सुखी किया ॥१४९|| द्रौपदी अर्जुनकी स्त्री थी, उसमें युधिष्ठिर और भीमको बहू-जैसी बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल उसे माताके समान मानते थे ॥१५०॥
द्रौपदीकी भी पाण्डुके समान युधिष्ठिर और भीममें श्वसुर बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल इन दोनों देवरोंमें अर्जुनके प्रेमके अनुरूप उचित बुद्धि थो ॥१५१॥ गौतम-स्वामी कहते हैं कि जो अत्यन्त शुद्ध आचारके धारक मनुष्योंकी निन्दा करनेमें तत्पर रहते हैं उनके उस निन्दासे उत्पन्न हुए पापका निवारण करनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥१५२।। दूसरेके. विद्यमान दोषका कथन करना भी पापका कारण है फिर अविद्यमान दोषके कथन करनेकी तो बात ही क्या है ? वह तो ऐसे पापका कारण होता है जिसका फल कभी व्यर्थ नहीं जाता-अवश्य ही भोगना पड़ता है ।।१५३।। साधारणसे-साधारण मनुष्योंमें प्रीतिके. कारण यदि समानधनता होती है तो धनके विषयमें ही होती है स्त्रियोंमें नहीं होती। फिर जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हैं उनकी तो बात ही क्या है ? ||१५४॥ महापुरुषोंकी कोटिमें स्थित पाण्डवोंके मिथ्या दोष कथन करनेवाले दुष्टोंकी जिह्वाके सौ खण्ड क्यों नहीं हो जाते? ॥१५५॥ पापका वक्ता और श्रोता जो इस लोकमें उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता है वह मानो परलोकमें वृद्धिके लिए ही सुरक्षित रहता है ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ-जिस पापका फल वक्ता और श्रोताको इस जन्ममें नहीं मिल पाता है उसका फल परभवमें अवश्य मिलता है और ब्याजके साथ मिलता है ॥१५६।। सद्बुद्धिसे पुण्यरूप कथाओंका सुनना वक्ता और श्रोताके लिए जिस
कल्याणका कारण माना गया है उसी प्रकार पापरूप कथाओंका सनना उनके लिए अकल्याणका कारण माना गया है ॥१५७॥ इसलिए असत्यरूप दोषसे उद्धत वाणीको छोड़ो, और
१. आयाताः पाण्डवैर्युक्ता म., घ. । २. सहदेवनकुलयोः म.। ३. योऽभ्याख्यान-म.। ४. स्त्रीचरित्रलोकेषु म., घ. ।
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