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हरिवंशपुराणे संपूज्यमानचरणो न कृत्वा तपो द्विविधमन्तरमूढधीर्यः । लोके प्रकाश्य जिनमार्गमनर्गलं संप्राप्तं परं पदमनत्ययमात्मशुद्धया ॥६१॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती कीचकनिर्वाणगमनो नाम
षट्चत्वारिंशः सर्गः ॥४६॥
आत्माको उस समय सम्यग्दर्शनरूपी उत्कृष्ट रत्नोंके आभूषणोंसे आभूषित किया। तदनन्तर वह बड़े हर्षसे मुनिराजको नमस्कार कर वनके अन्तमें अन्तहित हो गया-छिप गया ॥६०|| गौतम स्वामी कहते हैं कि अन्तरंगमें विवेक बुद्धि को धारण करनेवाला जो मनुष्य, अन्तरंग और बहिरंगके भेदसे दोनों प्रकारका तप करता है वह मनुष्य देव तथा असुरोंके समूहसे पूजित-चरण होता हुआ लोकमें निर्बाध जिनमार्गको प्रकाशित करता है और आत्मशुद्धिके द्वारा अविनाशी परम पदको प्राप्त होता है ।।६।।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कीचकके
निर्वाण गमनका वर्णन करनेवाला छयालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४६॥
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