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हरिवंशपुराणे
यूयमेव स्फुटं व्रत किमनिष्टं कृतं मया । युष्माकं येन साशङ्काः प्रविष्टाः सागरोदरम् ॥४२॥ सापराधतया यूयं यद्यप्युद्भूतभीतयः । दुर्गं श्रितास्तथाप्यस्मन्नभयं नमतैत्य माम् ॥ ४३ ॥ अथ दुर्गबलायूयं तिष्ठतानतिवर्जिताः । एषोऽहं सागरं पीत्वा बलैः कुर्वे कदर्थनाम् ॥ ४४ ॥ अज्ञातावस्थितीनां च कालदेशबलं बलम् । अधुना ज्ञातवार्तानां कालदेशवलं कुतः ॥४५॥ वचोहरवचः वा कुपिता निखिला नृपाः । कृष्णादयो जगुस्तत्र भृकुटीकुटिलाननाः ॥४६॥ भायात्यासनकालोऽसौ समस्तबलसंयुतः । रणातिथ्यं ददामोऽस्मै सङ्ग्रामोत्कण्ठिता वयम् ॥ ४७ ॥ इत्युक्त्वा स विसृष्टस्तै रूक्षवाग्वज्रताडितः । गत्वा स्वस्वामिने पूर्व निवेद्य कृतितां गतः ॥ ४८ ॥ विमला मलशार्दूलाः समुद्रविजयं ततः । मन्त्रिणो मन्त्रनिपुणाः संमन्त्र्येति व्यजिज्ञपन् ॥ ४९ ॥ शान्तये साम लोकस्य स्यात्स्वपक्षविपक्षयोः । मागधेन समं साम तस्माद्राजन् प्रयुज्महे ॥५०॥ ज्ञातिवर्गः समस्तोऽयं कुमारनिकरादिकः । अपायबहुले युद्धे संशयः कुशलं प्रति ॥५१॥ सन्ति योधा यथास्माकममोघशरवर्षिणः । साधनो मागधस्यापि तथैव भुवि विश्रुतः ॥ ५२ ॥ तदेकस्यापि हि ज्ञातेरपायो रणमूर्धनि । यथा शत्रोस्तथास्माकमतिदुःखकरो भवेत् ॥५३॥ अतो विश्वजनीनार्थं साम तावत्प्रशस्यते । तदर्थं प्रेष्यतां दूतो 'मागधान्तिकमस्मयात् ॥५४॥
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स्थिर कर सुनें ॥ ४१ ॥ उनका कहना है कि आप ही लोग स्पष्ट बताओ कि मैंने आपका क्या अनिष्ट किया है ? जिससे कि भयभीत हो आप लोग समुद्रके मध्यमें जा बसे हो || ४२ || यद्यपि अपराधी होनेके कारण भयभीत हो तुम लोगोंने दुर्गंका आश्रय लिया है तथापि मुझसे तुम्हें भय नहीं है, तुम लोग आकर मुझे नमस्कार करो ||४३|| यदि दुर्गका बल पा तुम लोग बिना नमस्कार किये यहाँ रहोगे तो यह मैं समुद्रको पीकर सेनाओंके द्वारा तुम्हारी अभी हाल दुर्दशा कर दूँगा ||४४ || जबतक तुम्हारे यहाँ रहने का पता नहीं था तभी तक तुम्हें काल और देशका बल, बल था पर आज पता चल जानेपर काल और देशका बल कैसे रह सकता है ? || ४५||
दूतके उक्त वचन सुनकर कृष्ण आदि समस्त राजा कुपित हो उठे और भौंहोंसे मुखको कुटिल करते हुए कहने लगे कि जिसकी मृत्यु निकट आ पहुँची है ऐसा तुम्हारा राजा समस्त सेनाओं के साथ आ रहा है सो युद्धके द्वारा हम उसका सत्कार करेंगे। हम लोग संग्रामके लिए उत्कण्ठित हैं ||४६-४७|| इस प्रकार कहकर यादवोंने दूतको विदा किया। वह उनके रूक्ष वचनरूपी वज्रसे ताड़ित होता हुआ द्वारिकासे चलकर अपने स्वामीके पास गया और सब समाचार कहकर कृतकृत्यताको प्राप्त हुआ ||४८|| तदनन्तर दूतके चले जानेपर मन्त्र करने में निपुण विमल, अमल और शार्दूल नामक मन्त्रियोंने सलाह कर राजा समुद्रविजयसे इस प्रकार निवेदन किया || ४९||
हे राजन् ! क्योंकि साम, स्वपक्ष और परपक्षके लोगोंको शान्तिका कारण होगा इसलिए हम लोग जरासन्धके साथ सामका ही प्रयोग करें। यह जो कुमारोंका समूह आदि है वह सब स्वजनों का समूह है । अपायबहुल युद्धमें इन सबकी कुशलताके प्रति सन्देह है ||५०-५१ ।। जिस प्रकार हमारी सेनामें अमोघ बाणोंकी वर्षा करनेवाले योद्धा हैं उसी प्रकार जरासन्धकी सेना भी पृथिवीमें प्रसिद्ध है ||५२ || युद्धके अग्रभाग में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु हो जायेगी तो वह जिस प्रकार शत्रुके लिए दुःखका कारण होगी उसो प्रकार हमारे लिए भी दुःखका कारण हो सकती है || ५३ || इसलिए सबकी भलाई के लिए साम हो प्रशंसनीय उपाय है । अतः अहंकारको छोड़कर साम- शान्ति के लिए जरासन्धके पास दूत भेजा जाये ||१४|| हाँ, सामके द्वारा शान्त करनेपर भी
१. पूर्वी म. । २. दण्डस्य म. । ३ माघवान्तिक-म ।
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