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पञ्चाशत्तमः सर्गः
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मागधः शाम्यमानोऽपि साम्ना यदि न शाम्यति । तदा तदुचितं कुर्मः को दोषः सामयोजने ॥ ५५ ॥ इति मन्त्रिभिरामन्त्रय राजा विज्ञापितस्तदा । को दोष इति संमन्त्र्य लोहजङ्घमजीगमत् ॥ ५६॥ स दक्षः शौर्य संपन्नः कुमारो नीतिलोचनः । जगाम निजसैन्येन जरासन्धेन सन्धये ॥ ५७ ॥ पूर्वमालवमासाद्य कृतसैन्यनिवेशनः । प्राप्तौ कान्तारमिक्षार्थं कान्तारे सार्थयोगिनी ॥ ५८ ॥ मासोपवासिनी दृष्ट्वा तिलकानन्दनन्दकौ । प्रतिगृह्यान्नपानाद्यैः पञ्चाश्चर्याणि लब्धवान् ॥५९॥ तीर्थं देवावताराख्यं ततः प्रभृति भूतले । मूतं भूतसहस्राणां पापोपशमकारणम् ॥ ६० ॥ दूतो गत्वा जरासन्धं संधानं प्रत्य संमुखम् । प्रत्यबोधयदेकान्ते प्रतिबोधनपण्डितः ॥ ६१॥ लोहजङ्घवचोऽत्यन्तप्रसन्नः प्रतिपन्नवान् । स सन्धानं जरासन्धः षण्मासावधिकं ततः ॥६२॥ दूतः पूजां नृपात्प्राप्य स प्राप्य द्वारिकां ततः । समुद्रविजयाद्यथं निवेद्य स्थितवान् कृति ॥ ६३ ॥ साम्येनैव ततो वर्षे सामग्री प्रत्यपेक्षया । पूर्णे 'पूर्ण महासन्धो महासामन्तसंततिः ॥६४॥ जरासन्धोऽत्र संप्राप्तः सैन्यसागररुद्धदिक् । कुरुक्षेत्रं महाक्षत्रप्रधानप्रधनोचितम् ॥ ६५ ॥ पूर्वमभ्येत्य तत्रैव केशवोऽपरसागरः । तस्थावापूर्यमाणः सन् वाहिनीनिवहैर्निजैः ॥६६॥ तत्रापाच्या नृपाः केचिदुदीच्याश्चापरान्तिकाः । संबन्धिनः सृता विष्णुं सकलैः स्वबलैर्युताः ॥ ६७ ॥
यदि जरासन्ध शान्त नहीं होता है तो हम लोग फिर उसके अनुरूप कार्य करेंगे। इस प्रकार साम उपाय अवलम्बन करनेमें क्या दोष है ? ।। ५५ ।।
इस प्रकार मन्त्र कर मन्त्रियोंने जब राजा समुद्रविजयसे कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि 'क्या दोष है ?' दूत भेजा जाये । इस प्रकार सलाह कर उन्होंने लोहजंघ कुमारको भिजवा दिया || ५६ ॥ कुमार लोहजंघ बहुत ही चतुर, शूर-वीर और नीतिरूपी नेत्रका धारक था । वह अपनी सेना ले जरासन्धके साथ सन्धि करनेके लिए चला ||१७|| पूर्वमालव देशमें पहुँचकर उसने वहाँ वनमें अपनी सेनाका पड़ाव डाला, वहाँ साथ-साथ विचरनेवाले तिलकानन्द और नन्दन नामक दो मुनिराज आये । वे दोनों मुनि मासोपवासी थे और 'वनमें आहार मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं' यह नियम ले वनमें विहार कर रहे थे । उन्हें देख कुमार लोहजंघने उन्हें पडगाहकर आहार दिया और उसके फलस्वरूप पंचाश्चर्यं प्राप्त किये || ५८-५९ ।। उसी समय से वह स्थान पृथिवीतलपर 'देवावतार' नामक तीर्थ बन गया और हजारों प्राणियोंके पाप शान्त होनेका कारण हो गया || ६०॥
जरासन्ध यद्यपि सन्धि करनेके पक्षमें नहीं था तथापि समझाने में चतुर दूत लोहजंघने जाकर उसे एकान्त में समझाया || ६१ || लोहजंघके वचनोंसे जरासन्ध बहुत प्रसन्न हुआ और उसने छह माह तक के लिए सन्धि स्वीकृत कर ली ||६२|| तदनन्तर राजा जरासन्धसे सम्मान प्राप्त कर लोहजंघ द्वारिका वापस लौट आया ओर समुद्रविजय आदिके लिए सब समाचार सुनाकर कृतकृत्य हो सुख से रहने लगा || ६३ ||
तदनन्तर युद्ध की तैयारीका ध्यान रख यादवोंने एक वर्ष शान्तिसे व्यतीत किया । इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण हो जानेपर महाप्रतिज्ञाको पूर्ण करनेवाला जरासन्ध बड़े-बड़े सामन्तोंके समूहसे युक्त तथा सेनारूपी सागरसे दिशाओंको व्याप्त करता हुआ बड़े-बड़े राजाओंके युद्धके योग्य कुरुक्षेत्रके मैदान में आ पहुँचा || ६४-६५ || अपनी सेनारूपी नदियोंके समूहसे भरे हुए कृष्णरूपी दूसरे सागर भी पहले ही आकर वहाँ आ जमे थे ||६६|| उस समय कृष्ण सम्बन्धी कितने ही दक्षिण-उत्तर और पश्चिमके राजा अपनी-अपनी समस्त सेनाओं के
१. पूर्णमहासन्धी म. । २. महासामन्तसन्नतिः म. ।
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