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पञ्चाशत्तमः सर्गः
दैवकालबलोपेता देवताकृतरक्षणाः। सुप्तव्याघ्रोपमा देव ! तावत्तिष्टन्तु यादवाः ॥२८॥ आस्महे वयमप्यत्र कालयापनया प्रभो ! । स्वाज्ञ स्वपर कालानां याप्यावस्था हि शस्यते ॥२९॥ अनयावस्थयासीने त्वयि तेषां प्रकोपिनाम् । द्विषां प्रतिविधानाय प्रतिपद्यस्व पौरुषम् ॥३०॥ इत्यादि मन्त्रिभिः पथ्यं तथ्यं विज्ञापितं प्रभुः । नाग्रहीत्क्षयकाले हि ग्राही ग्राहं न मुश्चति ॥३॥ सचिवानपकाश प्रकोपाय नृपो द्विषाम् । दूतं सोऽजितसेनाख्यं प्राहिणोद्वारिका पुरीम् ॥३२॥ स प्राच्यानां प्रतीच्यानामपाच्यानां च भूभृताम् । उदीच्यानामगस्थानां मध्यदेशाधिवासिनाम् ॥३३।। चतुरजाबलेशानी शासनानतिलजिनाम् । दूतानजीगमरिक्षप्रमायान्विति पराक्रमी ॥३४॥ दृतदर्शनमात्रेण कर्णदुर्योधनादयः । ते संप्राप्ता जरासंधं सत्यसंधाहितैषिणः ॥३५॥ नृपैस्तैरनुयातोऽसौ तनयायेमहाबलैः । निमित्तैर्वार्यमाणोऽपि प्रतस्थेऽरिजिगीषया ॥३६॥ स दूतोऽजितसेनोऽपि स्वामिकार्यहितः पुरीम् । सुद्वारां द्वारिका प्राप सुकृतीव दिवं कृती ॥३७॥ प्रविश्य नगरी रम्यामनेकाद्भुतसंकुलाम् । दृश्यमानो जनः पौरैराससाद नृपालयम् ॥३८॥ अशेषयादवाकीणां भोजपाण्डवसंयताम् । समां स प्राविशदविष्णोः प्रतीहारनिवेदितः ।।३।। कृतप्रणतिरध्यास्य दापितासनमग्रत तं प्रारभत स्वामिबललामावलेपतः ॥१०॥ आकर्ण्यतां समाधाय मनः सकलयादवैः । यया शास्ति महाराजो मागधः परमेश्वरः ॥४१॥
यदु किसी समय किसी अपेक्षा समुद्रके मध्य जाकर रहे थे। वे 'हमसे भयभीत हैं' ऐसा मत समझिए ॥२७॥ इसलिए हे देव ! जो देव और कालके बलसे सहित हैं, देव जिनकी रक्षा करते हैं और जो सोते हुए सिंहके समान हैं ऐसे यादव उधर द्वारिकामें सुखसे रहें और इधर हम लोग भी समय व्यतीत करते हुए सुखसे रहें क्योंकि हे उत्तम आज्ञाके धारक ! प्रभो ! जिसमें अपना और परका समय सुखसे व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय कही जाती है ।।२८-२९॥ आपके इस अवस्थासे रहनेपर भी यदि वे क्रोध करते हैं तो उनका प्रतिकार करनेके लिए पुरुषार्थको स्वीकृत करो ॥३०॥ इसे आदि लेकर मन्त्रियोंने यद्यपि हितकारी एवं सत्य निवेदन किया तथापि जरासन्धने उसे कुछ भी ग्रहण नहीं किया सो ठीक ही है क्योंकि विनाशके समय हठी मनुष्य अपना हठ नहीं छोड़ता ॥३१॥
राजा जरासन्धने मन्त्रियोंको अनसुना कर शत्रुओंको शीघ्र ही कुपित करनेके लिए अजितसेन नामक दूतको द्वारिकापुरी भेजा ॥३२॥ पराक्रमी राजा जरासन्धने चतुरंग सेनाओंके स्वामी, एवं आज्ञाका उल्लंघन न करनेवाले पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं, पर्वतों एवं मध्यदेशके निवासी राजाओंको 'आप लोग जल्दी आइए' यह कहकर दूत भेजे ॥३३-३४॥ दूतको देखते ही सत्यप्रतिज्ञ एवं हितको चाहनेवाले कर्ण, दुर्योधन आदि राजा, जरासन्धके पास आ पहुंचे ॥३५।। उक्त राजा तथा महाबलवान् पुत्र आदि कुटुम्बीजन जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा जरासन्ध, खोटे निमित्तोंसे रोके जानेपर भी शत्रुओंको जीतनेकी इच्छासे चल पड़ा ॥३६॥
___उधर जिस प्रकार पुण्य कार्य करनेवाला कुशल मनुष्य स्वर्ग जा पहुंचता है उसी प्रकार स्वामोके कार्यमें लगा हुआ अजितसेन दूत भी उत्तमोत्तम द्वारोंसे युक्त द्वारिका नगरीमें जा पहँचा ॥३७॥ अनेक आश्चर्यकारी रचनाओंसे व्याप्त सुन्दर द्वारिकापुरीमें प्रवेशकर नगरवासीजनोंके द्वारा देखा गया वह दूत क्रम-क्रमसे राजमहल में पहुंचा ॥३८॥ द्वारपालके द्वारा सूचना देनेपर उसने समस्त यादवोंसे व्याप्त एवं भोज और पाण्डवोंसे युक्त श्रीकृष्णकी सभामें प्रवेश किया ॥३९॥ प्रणाम करनेके बाद आगे दिलाये हुए आसनपर बैठकर उसने स्वामीके बलकी प्राप्तिसे उत्पन्न धमण्डसे इस प्रकार बोलना शुरू किया ॥४०॥
वह बोला कि राजाधिराज महाराज जरासन्ध जो आज्ञा देते हैं उसे समस्त यादव मन
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