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पञ्चाशत्तमः सर्गः इतः 'केनापि वणिजा झनध्यैर्मणिराशिमिः । जरासन्धो नूपो दृष्टः स्वक्रयाणकहेतुना ॥१॥ दृष्टा कस्मात्समानीताः प्रोवाच मगधेश्वरः । द्वारवत्याः प्रमो एते यत्र राजाऽच्युतो बली ॥२॥ यादवेन्द्र शिवादेव्योनें मिस्तीर्थकरोऽभवत् । मासान् पञ्चदश तत्र रत्नवृष्टिः कृता सुरैः ॥३॥ यादवानां च माहात्म्यं श्रस्वा राजगृहाधिपः । वणिजः तार्किकेभ्यश्च जातः कोपारुणेक्षणः ॥४॥ यदुवृद्धिमिति श्रुत्वा श्रुतवृद्धि विलोचनम् । प्रणम्य गणिनं भूपः श्रेणिकोऽपृच्छदित्यसौ ॥॥ मणिराशिविवाभ गुणमरीचिषु । प्रख्यातेष्वखिले लोके यादवेष्वतिभूरिषु ॥६॥ अनेकाहवनियंढदृढवीर्ये हरौ श्रुते । किमचेष्टत राजासौ भगवन्मगधाधिपः ॥७॥ ततो गणभृदाचख्यावनयोर्नरमुख्ययोः । वृत्तं श्रेणिकभूपाय शुश्रूषावहितात्मने ॥८॥ बुद्धवार्तो जरासन्धः सन्धि प्रति पराङमुखः । प्रमुख्यमन्त्रिमिः सत्रा मन्त्रमारमते स्म सः॥१॥ उपेक्षिताः कुतो हेतोर्मन्त्रिणो भणतारयः । वाधौं प्रवृद्धसंतानास्तरङ्गा इव मङ्गुराः ॥१०॥ मन्त्रिणो हि प्रमोश्चक्षनिर्मलं चारचक्षषः। ते कथं स्वामिनं स्वं च वञ्चयन्ति पुर स्थिताः ॥११॥ यदि नाम महैश्वर्यप्रमत्तेन मया द्विषः । नालक्ष्यन्त प्रतन्वामा युष्मामिस्तु कथं तु ते ॥१२॥ नोच्छिोरन्महोद्योगैर्जातमात्रा यदि द्विषः । दुःखयन्ति दुरन्तास्ते व्याधयः कुपिता इव ॥१३॥ ___इधर कोई एक वणिक् अपना खरीदा हुआ माल बेचनेके लिए बहुत-से अमूल्य मणि लेकर राजा जरासन्धसे मिला ॥१॥ उन मणियोंको देखकर राजा जरासन्धने उससे पूछा कि ये मणि तुम कहाँसे लाये हो ? इसके उत्तरमें वणिक्ने कहा कि हे स्वामिन् ! ये मणि उस द्वारिकापुरीसे आये हैं जहां अत्यन्त पराक्रमी राजा कृष्ण रहते हैं ।।२।। यादवोंके स्वामी समुद्रविजय और उनकी रानी शिवा देवीके जब नेमिनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे तब पन्द्रह मास तक देवोंने रत्नवृष्टि की थी ॥३।। उन्हीं रत्नोंमें-से ये रत्न लाया हूँ। वणिक् तथा मन्त्रियोंसे इस प्रकार यादवोंका माहात्म्य सुनकर जरासन्ध क्रोधसे लाल-लाल नेत्रोंका धारक हो गया ||४|| इस प्रकार यादवोंकी वृद्धि सुनकर राजा श्रेणिकने श्रुतज्ञान रूपी नेत्रके धारक गौतम गणधरको नमस्कार कर पूछा कि हे भगवन् ! महागुण रूपी किरणोंसे सुशोभित, समुद्र में मणियोंकी राशिके समान समस्त लोकमें प्रख्यात अत्यधिक यादवोंमें जब जरासन्धने अनेक युद्धोंमें जिनका दृढ़ पराक्रम परिपूर्णताको प्राप्त हो चुका था ऐसे कृष्णका नाम सुना तब उसको क्या चेष्टा हुई ? सो कृपा कर कहिए ।।५-७|| तदनन्तर गौतम गणधर, श्रवण करनेके लिए उत्सुक राजा श्रेणिकके लिए दोनों नर- श्रेष्ठ-जरासन्ध और कृष्णका चरित इस प्रकार कहने लगे--||८||
यादवोंका समाचार जानकर जरासन्ध सन्धिसे विमुख हो गया और मुख्य मन्त्रियों साथ मन्त्र करने लगा ॥९॥ उसने पूछा कि हे मन्त्रियो! बताओ तो सही समुद्रमें बढ़ती हुई तरंगोंके समान भंगुर शत्रु आजतक उपेक्षित कैसे रहे आये ? ॥९-१०|| गुप्तचर रूपी नेत्रोंसे युक्त राजाके मन्त्री ही निर्मल चक्षु हैं फिर वे सामने खड़े रहकर स्वामीको तथा अपने-आपको क्यों धोखा देते हैं ? ॥११॥ यदि महान् ऐश्वर्यसे मत्त रहनेवाले मैंने उन शत्रुओंको नही देखा तो आप लोगोंसे अदृष्ट कैसे रह गये ? आप लोगोंने उन्हें क्यों नहीं देखा ? ||१२।। यदि शत्रु उत्पन्न होते १. केनचिद्वणिजा अनर्धे०, म., ख., घ.। २. स्वक्रियाणक-म. । ३. 'नारायणः क्षमा शास्ति द्वारावत्याः प्रभो बली' म. । ४. कोपारुणो दशोः ग.। ५. भगवान्मगधाधिपः । ६.-मारम्यते स्म सः म. । ७. भरतारयः म.। ८. महाद्विषः म. ।
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