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हरिवंशपुराणे कंसं जामातरं हत्वा भ्रातरं चापराजितम् । प्रविष्टाः शरणं दुष्टा यादवा यादसांपतिम् ॥१४॥ यथप्यनवगाह्याब्धिगम्भीरोदरमाश्रिताः । उपायानायनि:कृष्टा वध्यास्ते मे झषा यथा ॥१५॥ द्वारिकामधितिष्ठन्तः संतिष्ठन्ते कुतोऽभयाः । तावदेव हि ते यावन्न मे कोपानलो ज्वलेत् ॥१६॥ इयन्तं कालमज्ञाता ज्ञातिभिः सह सुस्थिताः । ज्ञातानामधुना तेषां सुस्थितिमद्विषां कुतः ॥१७॥ साम्नश्चोपादानस्य न ते स्थानं कृतागसः । ततो सुष्माभिरेकान्तात्स्थाप्यता भेददण्डयोः ॥१८॥ दण्डोपायपधानं तं स्वामिनं मन्त्रिणस्ततः । प्रशाम्य प्रणताः प्रोचुः प्रसादपदवीस्थिताः ॥१९॥ आकय॑तां यथा नाथ विदन्तोऽपि वयं द्विषाम् । द्वारिकायां महावृद्धिं कालयापनया स्थिताः ॥२०॥ यादवान्वयसंभूताः स्वर्मुवामपि दुर्जयाः । श्रीनेमिर्वासुदेवश्च बलदेवश्च ते त्रयः ॥२॥ स्वर्गावतारकाले यः पूजितो वसुवृष्टिभिः । सुरेन्द्ररभिषिक्तश्च जिनो जन्मनि 'मन्दरे ॥२२॥ स कथं युधि जीयेत भवतामररक्षितः । युक्तेनापि समस्तेन राजकेन भुवस्तले ॥२३॥ बलकेशवयोश्चापि सामर्थ्य भवता न किम् । तच्छुतं बहुयुद्धेषु शिशुपाल वधादिषु ॥२४॥ यत्पक्षाः पाण्डवाश्चण्डाः प्रतारार्जितकीर्तयः । विद्याधराश्च बहवो वैवाहिकपथस्थिताः ॥२५॥ को ट्यो यत्र कुमारागां प्रसिद्धा रणशालिनाम् । स्वामिन्नर्धचतुर्थास्ते जीयन्ते यादवाः कथम् ॥२६॥ अन्त स्थान प्यपां पत्युस्तान कदाचिदपेक्षया । मद्धता इति मामंस्था नयमार्गविदो यदुन् ॥२७॥
ही महान् प्रयत्नपूर्वक नष्ट नहीं किये जाते हैं तो वे कोपको प्राप्त हुई बीमारियों के समान दुःख देते हैं और उनका अन्त अच्छा नहीं होता ।।१३।। ये दुष्ट यादव मेरे जमाई कंस और भाई अपराजितको मारकर समद्रकी शरणमें प्रविष्ट हए हैं ॥१४॥ यद्यपि वे प्रवेश करनेके अयोग्य समुद्रके मध्य भागमें स्थित हैं तथापि उपाय रूपी जलसे खींचकर मछलियोंके समान मेरे वध्य हैं ।।१५।। द्वारिकामें रहते हुए वे निर्भय क्यों हैं ? अथवा वे तभीतक निर्भय रह सकते हैं जबतक कि मेरी क्रोधाग्नि प्रज्वलित नहीं हई है ॥१६॥ इतने समयतक मझे उनका पता नहीं था इसलिए अपने कुटुम्बीजनोंके साथ वे सुखसे रहे आये पर अब मुझे पता चल गया है इसलिए उनका सुखपूर्वक रहना कैसे हो सकता है ? ॥१७॥ तीव्र अपराध करनेवाले वे साम और दानके स्थान नहीं हैं इसलिए आपलोग एकान्तरूपसे उन्हें भेद और दण्डके ही पक्षमें रखिए ॥१८॥
___ तदनन्तर प्रधान रूपसे दण्डको ही उपाय समझनेवाले स्वामी जरासन्धको शान्त कर प्रसादके मार्ग में स्थित मन्त्रियोंने नम्रीभूत हो कहा कि हे नाथ ! हमलोग शत्रुओंकी द्वारिकामें होनेवाली महा वृद्धिको जानते हुए भी समय व्यतीत करते रहे इसका कारण सुनिए ॥१२-२०।। यादवोंके वंश में उत्पन्न हए श्री नेमिनाथ तीर्थंकर श्री कृष्ण और बलदेव ये तीन महानुभाव इतने बलवान् हैं कि मनुष्योंकी तो बात ही क्या देवोंके लिए भी उनका जीतना कठिन है ।।२१।। स्वर्गावतारके समय जो रत्नोंकी वृष्टिसे पूजित हुआ था, जन्मके समय इन्द्रोंने सुमेरु पर्वतपर जिसका अभिषेक किया था और देव जिसकी सदा रक्षा करते हैं वह नेमि जिनेन्द्र यद्धमें आपके द्वारा कैसे जीता जा सकता है अथवा पथिवी तलके समस्त राजा भी इकट्ठे होकर उसे कैसे जीत सकते हैं ? ॥२२-२३।। शिशुपालके वधको आदि लेकर जो अनेक युद्ध हए उनमें क्या आपने बलदेव और कृष्णकी उस लोकोत्तर सामथ्र्यको नहीं सुना ? ||२४|| प्रतापसे कीतिको उपाजित करनेवाले महातेजस्वी पाण्डव तथा विवाह सम्बन्धसे अनुकूलता दिखलानेवाले अनेक विद्याधर इस समय जिनके पक्षमें हैं ।।२५।। और जिनके साढ़े तीन करोड़ कुमार रणविद्यामें कुशल हैं वे यादव कैसे जीते जा सकते हैं ? ॥२६॥ नय मार्गके जानकार १. प्रति म । २. द्वारिकावधि तिष्ठन्तः म., ग.। ३. मन्त्रिणस्तथा म.। ४. महावृद्धिः म.। ५. दुर्जयां म । ६ मन्दिर छ । मन्दरे- मेरी
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