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हरिवंश पुराणे
अतिनिचिताग्निवायुजलभूमिळतातरुभिः क्षितिरपचेतनैश्च गृहकल्पितदैवतकैः । रविविधुतारकाग्रहगणैर्जननेत्र पथैर्गगनमतोऽस्तु मूढिरिह कस्य जनस्य न वा ॥४७॥ सदसदनेकमेकमथ नित्यमनित्यमपि स्वकपररूपभेदमपि शेषमशेषपरम् । गुणगुणिकार्यकारणभिदाद्यखिलात्मतया जगदिदमित्यमी नियमिनी दृढमूढतया ॥ ४८ ॥ यदि च परस्परव्युदसनव्यसनाः स्युर्मृषा स्फुटमितरेतरेक्षणतया नमृषा हि तथा । निगमन संग्रह व्यवहृतिप्रमुखाश्च नयाः सकलनयप्रमाणपरिनिश्चित वस्तुनि याः ॥ ४९ ॥ 'पुरुषपुरस्सरेऽभिरुचिरन्यनिवृत्तिरुचेर्मुनिपति शासनाभिनिरतस्य जनस्य हि सा । सुगतिमयत्नतो विशति सिद्धिसुखान्वयिनीं शुभमखिलार्थगोचरमुदारचरित्रमपि ॥ ५० ॥ व्रतगुणशील राशिरतिघोरतपो विविधं विमलमिदं यतो भवति दर्शनशुद्धियुतम् । "जनन जरामृतिक्षयकरीं सुखदां भुवि तां भजतु जनस्ततो जिनगुणग्रहणाभिरता ॥५१॥ इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो दुर्गोत्पत्तिवर्णनो नामैकोनपञ्चाशः सर्गः ॥ ४९ ॥
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मूढ़ता इन तीन मूढ़ताओंरूप अन्धकारका समूह बहुत प्रबल है, वह जगत् के जीवोंके पवित्र नेत्रको अच्छी तरह आच्छादित कर रहा है और इसकी कोई ओषधि भी नहीं है । इसी अन्धकारके कारण देखनेका इच्छुक मनुष्य भी पद-पदपर आकुल होता हुआ तत्त्व और अतत्त्वको देखने में क्या समर्थ हो पाता है ? अर्थात् नहीं हो पाता ||४६ || यह पृथिवी अग्नि, वायु, जल, भूमि, लता और वृक्षोंसे तथा मन्दिरों में कल्पित अचेतन देवोंसे व्याप्त है और आकाश मनुष्योंके नेत्रगोचर सूर्य, चन्द्र, तारा तथा ग्रहों के समूह से व्याप्त है इसलिए इनके विषयमें किसे मूढता नहीं होगी ? भावार्थपृथिवी और आकाश कल्पित देवताओंसे भरे हुए हैं इसलिए विवेकसे विचारकर यथार्थं देवका निर्णय करना चाहिए ॥४७॥ यह संसार कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् एक है, कथंचित् अनेक है, कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, कथंचित् स्वरूप है, कथंचित् पररूप है, कथंचित् सान्त है, कथंचित् अनन्त है, और गुण गुणी तथा कार्य-कारणके भेदसे अनेक रूप है फिर भी ये संसार के प्राणी गाढ़ मूढ़ताके कारण एकान्तवादमें निमग्न हैं ||४८ || समस्त नों और प्रमाणोंके द्वारा निश्चित वस्तुके विषय में जो नैगम, संग्रह तथा व्यवहार आदि प्रमुख नय माने गये हैं वे यदि परस्पर में एक दूसरेका निषेध करते हैं तो मिथ्या हैं और परस्पर एक दूसरे पर दृष्टि रखते हैं तो समीचीन हैं || ४९ || अन्य देवताओंकी रुचिसे रहित एवं जिनेन्द्र भगवान् के शासन में निरत मनुष्यकी जो जीव आदि तत्त्वोंमें प्रगाढ़ श्रद्धा है उसकी वही श्रद्धा बिना किसी प्रयत्न के मोक्ष सुखसे सम्बन्ध जोड़नेवाली सुगति अथवा सम्यग्ज्ञानको और शुभ एवं समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले उत्कृष्ट चारित्रको भी प्राप्त होती है । भावार्थ मनुष्यकी श्रद्धारूप परिणति ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रकी प्राप्तिका कारण है ||५० ॥ यह व्रत गुण और शीलकी राशि तथा नाना प्रकारका अत्यन्त घोर तप चूंकि दर्शनकी शुद्धिसे युक्त होनेपर ही निर्मल होता है इसलिए जिनेन्द्र भगवान् के गुण ग्रहण करनेमें तत्पर मनुष्यको चाहिए कि वह जन्म, बुढ़ापा और मृत्युका क्षय करनेवाली एवं सुखदायो दर्शनकी शुद्धिका आराधन करे - अपने सम्यग्दर्शनको निर्मल बनावे ॥ ५१ ॥
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इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में दुर्गाकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला उनचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ || ४९||
१. पुरुषपुरस्सरोभि- म. । २. मुनिपतिशासनाशासनाभिरतस्य म. । ३. सिद्धिसुखान्वयिनं म. क. ४. भवपारमपारमनन्तं यियासु च चेन्मनः म ङ । अस्मिन् पाठे छन्दोभङ्गः अनन्तपदस्य वैयथ्यं च वर्तते ।
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