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हरिवंशपुराणे तिस्रः कोव्योऽधकोटी च कुमाराणां महौजसाम् । मनोभवस्वरूपाणां रमन्ते रमणप्रियाः ॥७॥
___शार्दूलविक्रीडितम् नित्यं द्वारवती पुरी परिगता वीरैः कुमारैरिमै
निर्गच्छद्भिरितस्ततो रथगजारूढैर्विशद्भिस्तथा । नानावेषधरैः प्रचण्डचरितैः पौरप्रजाह्लादिभिबभ्राजे भवनामरैरिव पुरी पाताललोकस्थिता ॥७५॥
स्रग्धराच्छन्दः प्रायः स्वर्गच्युतानां जिनपथचरितोदारपुण्योदयानां
कानां कीयमानं चरितमिदमिह श्रीकुमारोत्तमानाम् । संशृण्वन्त्येकमत्या मतिविमवयुताः श्रद्धाना जना ये
कौमारं यौवनं च व्यपगमितरुजस्ते वयो निर्विशन्ति ।।७६॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ यदुकुलकुमारोद्देशवर्णनो नाम
अष्टचत्वारिंशः सर्गः ॥४८॥
और पौत्र, बुआके लड़के तथा भानजे भी हजारोंकी संख्यामें थे ॥७३॥ इस प्रकार सब मिलाकर महाप्रतापी तथा कामदेवके समान सुन्दर रूपको धारण करनेवाले साढ़े तीन करोड़ कुमार, क्रीड़ाके प्रेमी हो निरन्तर क्रीड़ा करते रहते थे ॥७॥
निरन्तर रथ तथा हाथियोंपर सवार हो बाहर निकलते तथा भीतर प्रवेश करते हुए, नाना वेषोंके धारक, प्रबल पराक्रमी और नगरवासी प्रजाको आनन्द उत्पन्न करनेवाले इन वीर कुमारोंसे युक्त द्वारावती नगरी उस समय भवनवासी देवोंसे युक्त पातालपुरीके समान सुशोभित हो रही थी ।।७५।। गौतम स्वामी कहते हैं कि प्रायः स्वर्गसे च्युत होकर आये हुए तथा जिनेन्द्रप्रणीत मार्गका अनुसरण करनेसे सातिशय पुण्यका संचय करनेवाले इन प्रशंसनीय उत्तम यदुकुमारोंके इस कहे जानेवाले चरितको जो बुद्धिमान् मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सुनते हैं तथा श्रद्धान करते हैं वे समस्त रोगोंको दूर कर कौमार और योवन अवस्थाका उपभोग करते हैं-उनकी वृद्धावस्था छूट जाती है ।।७६।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें यदुवंशके
कुमारोंका नामोल्लेख करनेवाला अड़तालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४८॥
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