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एकोनपञ्चाशः सर्गः
निशि निशितासिनिर्मलनिशातमनास्त्वसकौ प्रतिपथमास्थिता प्रतिमया प्रतिमाप्रतिमा । वरवरसेनया स्फुटमदर्शि निशानिभया बहुधनसार्थं पातविषये द्रुतमागतया ॥२७॥ इह वनदेवता स्थितवतीयमिति प्रणतैः शरशतैरितिस्ववरदानमयाच्यत सा । भगवति वः प्रसादनिरुपद्रविणो द्रविणं यदभिलभेमहि प्रथमकिङ्करका वयकम् ॥ २८ ॥ इति तु वनेचरैः कृतमनोरथकैः पृथुकैः प्रबलतया सुसार्थममितः पुनरापतितैः । विनिहतसार्थं सार्थकतयान्तमितैः प्रतिमास्थितियुत संयतास्थितिभुवीदमदर्शि तु तैः ॥ २९ ॥ प्रशमसमाधिभागनशनस्थितिमा मरणादुपगत पुण्डरीका दुरुपल्लवे चण्डतया । स्वयमुपपद्य सा दिवमगात्प्रतिमाप्तमृतिर्मधुमथनस्वसा स्खलति न स्थितितः सजनः ॥३०॥ नखमुखर्दष्ट्रिका विकटकोटिविपाटितया यदपि कलेवरखण्डमुपार्जितधर्मतया । मृतिमितया विमुक्तमविमुक्तसमाधितया तदपि कराङ्गुलित्रिकशेषमशेषमभूत् ॥३१॥ रुधिरविलिप्ते गुप्तपथभूतलमाकुलिताः सकलमितस्ततस्तदभिवीक्ष्य तदा शबराः । धृतिरिह वध्यते वरददेवतया रुधिरे इति विनिधाय दैवतमदस्त्रिकराङ्गुलिभिः ॥३२॥ वनमहिषं निपात्य विषमं विषमाः परितः परुषकिरातका रुधिरमांसवलिप्रकरम् । “विचकरुरुन्मग्न मशक मक्षिकमक्षिविषं प्रविततविस्रगन्धदुरभीकृतदिग्वलयम् ॥१३॥
समय, तीक्ष्ण तलवारके समान निर्मल एवं निर्विकल्प चित्तको धारण करनेवाली वह प्रतिमातुल्य आर्यिका किसी मार्ग के सम्मुख प्रतिमायोगसे विराजमान हो गयी। उसी समय किसी बहुत धनी संघपर आक्रमण करने के लिए रात्रिके समान काली भीलोंकी एक बड़ी सेना शीघ्रतासे वहां आयी और उसने प्रतिमायोगसे विराजमान उस आर्यिकाको देखा ||२७|| 'यह यहाँ वनदेवो विराजमान है' यह समझकर सैकड़ों भीलोंने नमस्कार कर उससे अपने लिए यह वरदान मांगा कि 'हे भगवति ! यदि आपके प्रसादसे निरुपद्रव रहकर हम लोग धन प्राप्त कर सकेंगे तो हम आपके पहले दास होंगे ||२८|| इस प्रकारका मनोरथ कर भीलोंका वह विशाल समूह बड़ी मजबूती से चारों ओरसे यात्रियोंके उस संघपर टूट पड़ा और उसे मारकर तथा लूटकर कृतकृत्य होता हुआ जब वह वापस समीपमें आया तो उसने प्रतिमायोगसे स्थित आर्यिकाके खड़े होने के स्थानपर यह देखा ||२९|| जब भील लोग आर्यिका के दर्शन कर आगे बढ़ गये तब वहाँ एक सिंहने आकर उनपर घोर उपसगं शुरू कर दिया । उपसर्ग देख उन्होंने बड़ी शान्तिसे समाधि धारण की ओर मरण पर्यन्तके लिए अनशनपूर्वक रहनेका नियम ले लिया । तदनन्तर प्रतिमायोगमें ही मरणकर वे स्वर्ग गयीं सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपनी मर्यादासे कभी विचलित नहीं होते ||३०|| निरन्तर धर्मंका उपार्जन करनेवाली एवं गृहीत समाधिको न छोड़नेवाली उस आर्यिकाका शरीर सिंहके नख, मुख और डाढ़ोंके अग्रभागसे विदीर्ण होनेके कारण यद्यपि छूट गया था तथापि उसके हाथकी तीन अँगुलियाँ वहाँ शेष बच रही थीं यही तीन अंगुलियां उन भीलों को दिखाई दीं ||३१|| खूनसे विलिप्त होनेके कारण जिसका मार्ग अन्तर्हित हो गया था ऐसी वहाँको समस्त भूमिको उन भीलोंने उस समय बड़ी आकुलतासे यहां-वहां देखा पर कहीं उन्हें वह आर्यिका नहीं दिखी। अन्तमें उन्होंने निश्चय किया कि वरदान देनेवाली वह देवी इस रुधिर में हो सन्तोष धारण करती है इसलिए हाथकी उन तीन अँगुलियोंको वहीं देवता रूपसे विराजमान कर दिया और बड़े-बड़े जंगली भैंसाओं को मारकर उन विषम एवं क्रूर भीलोंने सब
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१. प्रतिपथया स्थिता प्रविशया प्रतिमा । २ रात्रिप्रभातुल्यया - कृष्णया । ३. विनिहितम, क., ख., ङ. । ४. उपगतसिंहात् । ५ द्रुतपल्लवचण्डतया म । ६. विलुप्त - म. । ७. विचकरु रुद्रमग्नशकमक्षिक म. विचकरुरुद्रमद्य शशक मक्षिक ग. ।
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