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एकोनपञ्चाशः सर्गः
नेकुंटकच्छन्दः अथ मधुसूदनावरजया वरया जगतामवितथकन्यया शशिविशुद्ध यशायरया । प्रथितसुदुर्भरप्रथमयौवनभूरिभरः प्रकटममारि हारिगुणभूषणभूषितया ॥१॥ नखमणिमण्ड लेन्दुललिताङ्गलिपल्लवयोरकृतकरक्तताहमितभास्वदलतकयोः । मृदुपदपद्मयोः प्रपदमागसमोन्नतयोगति यदीययोरुपमयापगतं त्रपया ॥२॥ दृढगुणगूढगुल्फनिजजानमनोहरयोः प्रतिपदमानुपूर्व्यपरिवृत्तविलोमशयोः । निरुपमजयोर्जधनभूरिभरक्षमयोः संविरसमलयोन हि यदीयकयोरुपमा ॥३॥ मृदुपरिवृत्तपाण्डुरगुणं विगलदहलस्थिर वरकान्तिदीप्तिरसपूरितमूरुयुगम् । करिकरयष्टिवृत्तकदलीमृदिमानमतिप्रथितमतीत्य सत्यगुणचारि यदीयमभात ।।४।। बहुरसपूर्ण वर्णकुलशैलभवप्रमदाप्रमदविधायिपुण्यसरितः कलहंसगतेः । गुरुजघनस्थली पुलिनभूमिरभूमिरसौ कुसुमरथस्य शुम्भितनितम्बता विवमौ ।।५।। तनुमृदुरोमराजिलतयातिविनीलरुचा जननयनाभिरामनिज नाभिगभीरत या । तनुमध्यबन्धनवलित्रयविचित्रतया ललितवधूजनेष्वतिविराजितसत्रनया” ॥६॥
अथानन्तर कृष्णकी छोटी बहन जगत में उत्तम, चन्द्रमाके समान निर्मल यशको धारण करनेवाली एवं मनोहर गुणरूपी आभूषणोंसे भूषित यशोदाको पुत्रो ( जो कृष्णके बदले में आयी थी )ने अतिशय प्रसिद्ध प्रथम यौवनके बहुत भारी भारको धारण किया ।।१।। जिनके अंगुलिरूपी पल्लव श्रेष्ठ नखरूपी चन्द्रमण्डलसे सुशोभित थे, जिन्होंने अपनी स्वाभाविक ललाईसे देदीप्यमान महावरकी हँसी की थी, तथा जो अग्रभागमें समान रूपसे ऊँचे उठे हुए थे ऐसे उसके कोमल चरण-कमलोंकी उपमा उस समय लज्जासे ही मानो संसारमें कहीं चली गयी थी। उसके कोमल चरण-कमल अनुपम थे ॥२॥ जो अत्यन्त मजबूत एवं गूढ गाँठों और घुटनोंसे मनोहर थी, उत्तरोत्तर बढ़ती हुई गोलाईसे सुशोभित एवं रोमरहित थी, नितम्बोंका बहुत भारी भार धारण करने में समर्थ थी, और जो परस्परके प्रतिस्पर्धी मल्लके समान जान पड़ती थी ऐसी उसकी अनुपम जंघाओंकी उस समय कहीं उपमा नहीं रही ॥३॥ जो कोमल गोल और शुभ्र थे, जिनसे अत्यधिक स्थायी एवं श्रेष्ठ कान्ति चू रही थी, जो दीप्तिरूपी रससे परिपूर्ण थे, हाथीकी सूड और गोल कदलीको सुकुमारताको उल्लंघन कर विद्यमान थे, अतिशय प्रसिद्ध थे और यथार्थ गुणोंसे युक्त थे, ऐसे उसके दोनों ऊरु उस समय अत्यधिक सुशोभित होने लगे ॥४॥ कलहंसके समान सुन्दर चालसे सुशोभित उस कन्याकी स्थूल जघनस्थली, अनेक रसोंसे परिपूर्ण वर्णवाले कुलाचलोंसे उत्पन्न स्त्रियोंके लिए हर्ष उत्पन्न करने वाले पुण्यरूपी, नदीकी उस पुलिन भूमि-तट भूमिके समान सुशोभित होने लगी जो कामकी अभूमि-अगोचर तथा नितम्बरूपी सुन्दर तटोंसे युक्त थी ।।५॥ वह कन्या, सूक्ष्म, कोमल और अत्यन्त काली रोमराजिसे, मनुष्योंके नेत्रोंको १. "हयदशभिर्नजो अजजला गुरु नर्कुटकम्" इति लक्षणात् (वृत्तरत्नाकरस्य)। २. यशोदायाः कन्यया (ङ. टि.)। ३. वरनिर्मलपल्लवयोः क., अतिनिर्मल ङ., रतिनिर्मल-म.। ४. अकृतकरकृता हसित (?) म.। ५. प्रमदभागसमन्वितयोः म., पादस्याग्रं प्रपदः। ६. सविरसमत्ययोः क., सविरसमल्पयोः म. । ७. स्थिरकर-क., ख., ङ., म.। ८. नितम्बतटेव बभौ म.। ९. विनीतरुचा म.। १०. -मत्रपया म. ।
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