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हरिवंशपुराणे
अग्रजाय मया देया रुक्मिणीसत्यमामयोः । दुहितेति प्रतिज्ञातं पूर्व प्रीतेन तेन च ।।८८|| अग्रजस्त्वं ततो जातो विष्णवे विनिवेदितः । भानुश्च सत्यमामायास्तदनन्तरमान्तरैः ॥८९|| अकस्माद् गच्छता क्वापि हृतस्त्वं धूमकेतुना । विषण्णा रुक्मिणी जाता सत्यमामा तु तोषिणी ॥१०॥ अविज्ञातभवद्वातॊ दुर्योधनयशोधनः । कन्यकामुदाधि नाम्ना भानवे प्राहिणोदसौ ॥११॥ भाविनीन ततः सेयं महासाधनरक्षिता । द्वारिकां प्रस्थिता कन्या भानवे किल भाविनी ॥९२।। श्रत्वा नारदमाकाशे स्थापयित्वा क्षणं ततः । सोऽवतीर्य पुरस्तस्थौ शाबरं वेषमाश्रितः ।।१३।। केशवेन वितीण मे शुल्क दत्वा तु गम्यताम् । इत्युक्त कैश्चिदित्युक्तं प्रार्थ्यतां प्रार्थितं तव ॥१४॥ यदत्र निखिले सैन्ये सारभूतमितीरिते । ईरितं सारभूतात्र कन्यकेति समन्युमिः ॥९५।। यद्येवं दीयतां मह्यं सैवेत्युक्ते जगुः परे । विष्णुना जनितो न त्वं स प्राह जनितस्विति ॥१६॥ असंबद्धप्रलापस्य पृष्टतां पश्यतेति ते । धनुःकोटिभिरुत्सार्य प्रवृत्ता गन्तुमुद्यताः ॥१७॥ ततः शाबरसेनाभिविद्यया विकृतात्मभिः । दुर्योधनबलं जित्वा कन्यामादाय खं श्रितः ॥९८॥ दिव्यरूपं तमालोक्य कन्या त्यक्तभया ततः । हृष्टा नारदवाक्येन बुद्ध तत्त्वा समाश्वसीत् ॥९९।।
ही दुर्योधन है (जिसके साथ युद्ध करना कठिन है) और वह हस्तिनापुर नामके उत्तम नगरमें रहता है ॥८७|| एक बार पहले प्रसन्न होकर उसने कृष्णसे प्रतिज्ञा की थी कि यदि मेरे कन्या हुई और आपकी रुक्मिणी तथा सत्यभामा रानियोंके पुत्र हुए तो जो पुत्र पहले होगा उसके लिए मैं अपनी कन्या दूंगा ॥८८।। तदनन्तर रुक्मिणीके तुम और सत्यभामाके भानु साथ ही साथ उत्पन्न हुए परन्तु रुक्मिणीके सेवकोंने कृष्ण महाराजके लिए पहले तुम्हारी खबर दी इसलिए तुम 'अग्रज' घोषित किये गये और सत्यभामाके स्वजनोंने पीछे खबर दी इसलिए उसका पुत्र भानु 'अनुज' घोषित किया गया ।।८९।। तदनन्तर अकस्मात् कहीं जाता हुआ धूमकेतु नामका असुर तुम्हें हर ले गया इसलिए तुम्हारी माता रुक्मिणी बहुत दुखी हुई और सत्यभामा सन्तुष्ट हुई ॥९०। जब आपका कुछ समाचार नहीं मिला तब यशरूपो धनको धारण करनेवाले दुर्योधनने अपनी उदधिकुमारी नामकी कन्या सत्यभामाके पुत्र भानुके लिए भेज दी ॥११॥ हे स्वामिन् ! नाना भावोंको धारण करनेवाली यह वही कन्या बड़ी भारी सेनासे सुरक्षित हो द्वारिकाको जा रही है तथा सत्यभामाके पुत्र भानुकी स्त्री होनेवाली है ।।१२।।
यह सुन प्रद्युम्नने नारदको तो वहीं आकाशमें खड़ा रखा और आप उसी क्षण नीचे उतरकर भीलका वेष रख सेनाके सामने खड़ा हो गया ॥९३॥ वह कहने लगा कि 'कृष्ण महाराजने मेरे लिए जो शुल्क देना निश्चित किया है वह देकर जाइए'। भीलके इस प्रकार कहनेपर कुछ लोगोंने कहा कि 'माँग क्या चाहता है' ? ॥९४॥ भीलने उत्तर दिया कि 'इस समस्त सेनामें जो वस्तु स त हो वही चाहता हूँ। उसके इस प्रकार कहनेपर लोगोंने क्रोध दिखाते हए कहा कि 'सेनामें सारभूत तो कन्या है' । भीलने फिर कहा कि 'यदि ऐसा है तो वही कन्या मुझे दी जाये' । यह सुन लोगोंने कहा कि 'तू विष्णु-कृष्णसे उत्पन्न नहीं हुआ है'-कन्या उसे दी जायेगी जो विष्णुसे उत्पन्न होगा। भीलने जोर देकर कहा कि 'मैं विष्णुसे उत्पन्न हुआ हूँ'। 'इस असम्बद्ध बकनेवालेकी धृष्टता तो देखो' यह कह उसे धनुषकी कोटीसे अलग हटाकर लोग ज्योंही आगे जानेके लिए उद्यत हुए त्योंही वह विद्याके द्वारा निर्मित भोलोंकी सेनासे दुर्योधनकी सेनाको जीतकर तथा कन्या लेकर आकाशमें जा पहुंचा ॥९५-९८॥ विमानमें पहुंचकर प्रद्युम्नने अपना असली रूप रख लिया अतः सुन्दर रूपको धारण करनेवाले उसको देखकर कन्या निर्भय हो गयो और नारदके कहनेसे यथार्थ बातको जान हर्षित हो सुखको सांस लेने लगी ॥१९॥ १. हतस्त्वं म. । २. भाविनीव म., ख. । भाविनी + इन इतिच्छेदः ।
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