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अष्टचत्वारिंशः सर्गः
मया खेटपुराम्भोधिमकरेण समं निजम् । द्वारिकाकूपमण्डूकः पण्डितम्मन्य मन्यसे ॥ २६ ॥ अनुभूतं श्रुतं दृष्टं यन्मयातिमनोहरम् । विद्याधरपुरेष्वेतदन्येषामतिदुर्लभम् ॥२७॥ इत्युक्ते प्रणतेनोक्तः शम्बेनानकदुन्दुभिः । शुश्रूषाम्यार्य वृत्तं ते भव्यतामिति सादरम् ॥ २८ ॥ स प्राहानन्दभेर्या एवं वत्स बोधय यादवान् । कथयामि समस्तानां सहैव चरितं निजम् ॥२९॥ तथा कृते समस्तेभ्यो यादवेभ्यः सविस्तरम् । कलत्रादिसमेतेभ्यो वृत्तं तेनाकथि स्वकम् ॥३०॥ लोकालोकविभागोतिं हरिवंशानुकीर्तनम् । स्वक्रीडा सौर्यलोकोक्तिनिर्गमं च ततो निजम् ॥ ३१ ॥ इत्यादि चरितं दिव्यं दिव्यमानुषसंभवम् । प्रद्युम्नशम्बसंभूतिभूतिपर्यवसानकम् ॥३२॥ वसुदेवस्य सर्वोऽपि सर्वविद्याधरीमयः । अन्तःपुरजनो हृष्टः श्रुतस्मरणसंगतः ॥३३॥ श्रुत्वा सभाजनाचापि वृद्धस्त्रीयुवबालकाः । यदवोऽन्तः पुराण्येषां कुरवो द्वारिकाजनाः ॥ ३४ ॥ विस्मयं परमं प्राप्ताः शशंसुः संशयोज्झिताः । वसुदेवं शिवाद्याथ देव्यः पीतकथारसाः ॥३५॥ यथायथं नृपा जग्मुरावासान्वासिताम्बराः । अन्तःपुराणि सर्वेषां रक्षितानि सुरक्षकैः ॥ ३६ ॥ कथा पुनर्नवीभूता प्रतिवेश्म दिने दिने । जाता जनस्य साश्चर्या वसुदेवमयी कथा ॥ ३७ ॥ नत्वा पृष्टवते भूयः श्रेणिकाय गणी जगौ । कुमारान् कतिचित्पुर्यामिति वीरवचःक्रमात् ॥ ३८ ॥
है ॥२५॥ मैं विद्याधरोंके नगररूपी समुद्रोंका मगर हूँ और तू द्वारिकारूपी कूपका मेढक है फिर भी है पण्डितमन्य ! तू अपने आपको मेरे समान मानता है ||२६|| मैंने विद्याधरोंके नगरोंमें जो कुछ अनुभव किया, देखा तथा सुना है वह अत्यन्त मनोहारी है और दूसरोंके लिए अतिशय दुर्लभ है ||२७|| वसुदेवके इस प्रकार कहनेपर शम्बने नमस्कार कर आदरपूर्वक उनसे कहा कि हे आर्य ! मैं आपका वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ कृपा कर कहिए ||२८|| इसके उत्तर में वसुदेवने कहा कि हे वत्स ! तू आनन्दभेरी बजवाकर समस्त यादवोंको इसकी सूचना दे । सबके लिए मैं साथ हो अपना चरित्र कहूँगा ||२९|| तदनन्तर आनन्दभेरीके बजवानेपर जब स्त्री-पुत्रादि सहित समस्त यादव एकत्रित हो गये तब वसुदेवने उनके लिए विस्तारपूर्वक अपना सब वृत्तान्त कहा ॥३०॥ उन्होंने लोकालोकके विभागका वर्णन किया, हरिवंशकी परम्पराका निरूपण किया, अपनी क्रीड़ाओंका कथन किया, सौर्यपुरके लोगोंने राजा समुद्रविजयसे मेरी क्रोड़ाओंसे होनेवाली लोगोंको विपरीत चेष्टाएँ कहीं, तदनन्तर मैं छलसे सौर्यपुरसे निकलकर बाहर चला गया""" यह निरूपण किया । इस प्रकार प्रद्युम्न और शम्बकी उत्पत्ति तथा उनकी विभूतिपर्यन्त अपना मनुष्य तथा विद्याधरोंसे सम्बन्ध रखनेवाला दिव्य चरित कह सुनाया ||३१-३२|| वसुदेव के अन्तःपुरमें जो विद्याधर स्त्रियाँ थीं वे सब उनका यह चरित सुन पूर्व वृत्तान्तको स्मरण करती हुई अत्यन्त हर्षित हुईं ||३३|| सभासद् लोग, वृद्ध पुरुष, स्त्री, युवा, बालक, समस्त यदुवंशी, इनके अन्तःपुर, पाण्डव तथा द्वारिकाके अन्य लोग, वसुदेवके उक्त चरितको सुनकर परम आश्चर्यको प्राप्त हुए और शिवा आदि देवियां वसुदेवके इस कथारूपी रसका पान कर संशय रहित हो उनको प्रशंसा करने लगीं ।।३४-३५ ॥ सुगन्धित वस्त्रोंको धारण करनेवाले सब राजा यथायोग्य अपनेअपने स्थानोंपर चले गये और सबके अन्तःपुर भी पहरेदारोंसे सुरक्षित हो अपने-अपने स्थानोंपर पहुँच गये ||३६|| अनेक आश्चर्योंसे युक्त वसुदेवकी कथा फिरसे ताजी हो गयी और पुनः प्रतिदिन घर-घर होने लगी ||३७||
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तदनन्तर नमस्कार कर पूछनेवाले राजा श्रेणिकके लिए गौतम गणधर, भगवान् महावीर स्वामीकी दिव्यध्वनिके अनुसार कुछ कुमारोंका इस प्रकार वर्णन करने लगे ||३८||
१. समात्तानां म । २ यादवोऽन्तः - म । ३. भूपः म. ।
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