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हरिवंशपुराणें
परिणीय ततः कामः कन्यामन्यामिव श्रियम् । अरीरमदरं भोगैर्द्वारिकायां मनोरमैः ||१३| दक्षो जिल्ला सुभानुं तं द्यूते प्रेक्षण केक्षणे । शम्बो ददाति सर्वस्य लोकस्य सकलं धनम् ॥ १४ ॥ क्रीडया स पुनर्जिग्ये पक्षिणोर्बहुजल्पिनोः । गन्धयुक्तिप्रयोगेण पुनः सदसि शार्ङ्गिणः ॥ १५ ॥ अग्निशोध्येन दिव्येन सवस्त्रयुगलेन तम् । दिव्यालंकारयोगेन जिगाय सदसि प्रभोः ॥१६॥ बलदर्शन तो जित्वा तमसौ हृष्टविष्णुतः । मासं लब्ध्वा पुना राज्यं चक्रे दुर्ललिताः क्रियाः ||१७|| ताडितः पुनरुद्वृत्तः पित्रा प्रणयकोपिना । 'युग्येन कन्यकारूपः सत्योत्संगमतोऽविशत् ||१८|| सत्या सुतार्थमानीतां विवाह्य वरकन्यकाम् | आविश्वकार रूपं स्वं शम्बो लोकस्य पश्यतः ||१९|| एकस्यामेव रात्रौ तु कन्यकानां शतेन सः । कल्याणस्नानकं स्नात्वा भातृसौख्यकरोऽभवत् ||२०|| सत्यभामादिदेवीनां कुमाराः शतशस्तदा । विवाह्य बहुशः कन्याश्चिक्रीडुः शक्रकीर्तयः ॥ २१ ॥ क्रीडापूर्व गतो गेहमन्यदा मान्यमात्मनः । पितामहमिति प्राह शम्बः प्रणतिपूर्वकम् ||२२|| युष्माभिः सर्वकालेन क्लेशेन खचराङ्गनाः । पर्यटद्भिः क्षितौ लब्धाः पूज्यपूज्या मनोरमाः ||२३|| अक्लेशेनैकरात्रेण मया तु गृहवर्तिना । परिणीताः शतं कन्याः पश्यतान्तरमावयोः ||२४|| वसुदेवस्ततः प्राह वत्स त्वमिषुवत्पुनः । क्षिप्तोऽपि गृहमध्येऽपि दूरमन्तरमावयोः ||२५||
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लाये ||१२|| तदनन्तर दूसरी लक्ष्मी के समान सुन्दर उस कन्याको विवाहकर प्रद्युम्न द्वारिका नगरी में उसे मनोहर भोगोंसे शीघ्र ही कोड़ा कराने लगा || १३|| शम्ब जुआ खेलने में बहुत चतुर था । एक दिन उसने सबके देखते-देखते जुआ में सुभानुका सब धन जीत लिया और सब लोगोंको बांट दिया ॥१४॥ नाना प्रकारकी बोली बोलनेवाले पक्षियोंकी क्रीड़ासे शम्बने सुभानु कुमारको जीत लिया । एक कृष्णकी सभामें दोनों कुमारोंके बीच सुगन्धिकी परखमें शास्त्रार्थं हो पड़ा जिसमें शम्बने सुभानुको पुनः हरा दिया || १५ || एक बार उसने अग्नि में शुद्ध किये हुए दो दिव्य वस्त्रों तथा दिव्य अलंकारोंको प्राप्त कर राजा कृष्णको सभामें सुभानुको जीत लिया ॥ १६ ॥ एक बार अपना बल दिखाकर उसने सुभानु कुमारको ऐसा जीता कि कृष्ण महाराज उसपर एकदम प्रसन्न हो गये । कृष्णने उससे वर मांगनेका आग्रह किया जिससे एक माहका राज्य प्राप्त कर उसने बहुत विपरीत क्रियाएँ कीं ॥ १७॥ प्रणय कोपको धारण करनेवाले कृष्णने उस दुराचारी शम्बको बहुत ताड़ना दी। एक दिन शम्बकुमार कन्याका रूप धारण कर रथमें सवार हो सत्यभामा की गोद में जा प्रविष्ट हुआ ॥ १८ ॥ सत्यभामाने समझा कि यह कन्या मेरे पुत्र सुभानुके लिए ही लायी गयी है इसलिए उसने सुभानुके साथ विवाह करा दिया परन्तु विवाह के बाद ही शम्बकुमार ने लोगोंके देखते-देखते अपना असली रूप प्रकट कर दिया || १९|| उसने एक ही रात्रिमें सौ कन्याओं के साथ विवाह सम्बन्धी मांगलिक स्नान कर अपनी माता जाम्बवतीको बहुत सुखी किया ||२०|| इन्द्रके समान कीर्तिको धारण करनेवाले सत्यभामा आदि रानियों के सैकड़ों कुमार भी उस समय अनेक कन्याओंको विवाह कर इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥ २१ ॥ एक दिन शम्ब अपने मान्य पितामह वसुदेव के घर गया और प्रणाम कर क्रीड़ापूर्वक इस प्रकार कहने लगा - हे पूज्य ! आपने पृथिवीपर बहुत समय तक क्लेश उठाते हुए भ्रमण किया तब कहीं आप विद्याधरोंकी पूज्य एवं मनोहर कन्याएँ प्राप्त कर सके परन्तु मैंने घर बैठे बिना किसी क्लेश के एक ही रात्रिमें सो कन्याओंके साथ विवाह कर लिया। आप हम दोनोंके अन्तरको देखिए ।। २२-२४ ॥ यह सुन वसुदेवने कहा कि वत्स ! तू बाणके समान दूसरेसे ( प्रद्युम्नसे) प्रेरित हो चलता है और फिर तेरी चाल भी कहाँ है ? सिर्फ घर में ही । इसीलिए हम दोनों में बहुत अन्तर
१. रथेन ( ग. टि. ) । प्रेरितश्चलसि (ग. टि. )
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२. वरकन्यकाः म. । ३. कल्याणस्नातकं म. । ४. वाणवत्परप्रेरितः प्रद्युम्न.
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