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हरिवंशपुराणे
मान्यो मान्याभिरन्यस्त्रीहोकेरीभिरसौ ततः । मनोभूर्वं रकन्यामिः कल्याणममजत्परम् ॥ १३६ ॥
पृथिवी च्छन्द:
कनत्कनकमालया कनकमालया सेशया
विवाहसमयाप्तया सममिदृष्टकख्याणकः ।
विवाह्य विधिना वधूरुदधिपूर्विका मन्मथो
जिनेन्द्रवरशासनोर्जित सुखोदयः सोऽन्वभूत् ॥ १३७ ॥
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इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ कुरुवंशप्रद्युम्नमातृपितृसमागमवर्णनो नाम सप्तचत्वारिंशः सर्गः ॥४७॥
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उत्सव कराया || १३५ ॥ तदनन्तर मान्य प्रद्युम्नकुमार अन्य स्त्रियोंको लज्जा उत्पन्न करनेवाली उत्तमोत्तम मान्य कन्याओं के साथ उत्तम विवाह - मंगलको प्राप्त हुआ || १३६ || गौतम स्वामी कहते हैं कि स्वर्णकी देदीप्यमान मालासे युक्त रानी कनकमालाने अपने पति कालसंवर विद्याधरके साथ विवाह के समय आकर जिसके विवाहरूप कल्याणको देखा था एवं जिनेन्द्र भगवान् के उत्कृष्ट शासन के प्रभाव से जिसे बहुत भारी सुखकी प्राप्ति हुई थी ऐसा प्रद्युम्नकुमार उदधिकुमारी आदि कन्याओंको विधिपूर्वक विवाहकर उनका उपभोग करने लगा || १३७ ||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें कुरुवंश तथा प्रद्युम्नका माता-पिता के साथ समागमका वर्णन करनेवाला सैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ ४७ ॥
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१. श्रीकरीभिम. ग. । २. ईशेन पत्या सह वर्तमाना सेशा तया । सेवया म ।
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