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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
ततः स्तनंधयो जातो गृहीतस्तन चूचुकः । तथोत्तानशयो मातुः करपल्लव सौख्यदः ॥ १२२ ॥ संसर्पन्नुरसा जातस्तथोत्तिष्टन्पतन्पुनः । मातुः कराङ्गुलौ लग्नो मणिकुट्टिमसर्पणः ॥ १२३ ॥ पांशुक्रीडां विधायाम्बाकण्ठलग्नो व्यधात्सुखम् । कलालापस्मिताह्लादिवदनो वदनेक्षणः ॥ १२४॥ मनोहर शिशुक्रीडापूरिताम्वामनोरथः । स्वभावस्थितदेहस्थो नत्वा विज्ञाप्य तां सुतः ॥ १२५॥ क्षिप्रमुत्क्षिप्य बाहुभ्यां वियति प्रकटस्थितः । जगाद श्रूयतां सर्वैरिह यादवपार्थिवैः ॥ १२६॥ युष्माकं तामेव लक्ष्मीरिव हरेः प्रिया । हियते रुक्मिणी देवी यादवाः परिरक्ष्यताम् ॥ १२७ ॥ इत्युक्त्वा शङ्खतापूर्य नारदोदधिकन्ययोः । विमाने स्थापयित्वा तां युद्धार्थं वियति स्थितः ॥१२८॥ विनिर्ययुस्ततः पुर्यायोद्धुं सन्ना यादवाः । चतुरङ्गबलोपेताः पञ्चायुधविचक्षणाः ॥ १२९ ॥ विद्याबलेन निश्शेपं कामो बादवाधनम् । मोहयित्वाम्वरस्थेन युयुधे हरिणा चिरम् ॥ १३८॥
कौशल्ये कृते कृष्णस्य सूनुना । प्रौढदृष्टी महादोभ्यां योद्धुं वीरौ समुच्छ्रितौ ॥ १३१ ॥ विशुकनारदेनोभो वियत्यागत्य वेगिना । वारितौ तौ पितापुत्रसंबन्धविनिवेदिना ॥ १३२ ॥ ततः प्रणतमाश्लिष्य प्रद्युम्नं प्रमदी हरिः । आनन्दाश्रुपताक्षः समयोजयदाशिषा ॥ १३३॥ माया शायितं सैन्यं समुत्थाप्य सविद्यया । तुष्टो बान्धवलोकेन मदनः प्राविशत्पुरीम् ॥ १३४॥ ते जातपुत्रसमागमे । तदाचीकरतां तोषादुत्सवं वत्सवत्सले ॥१३५॥
फुला-फुलाकर हाथका अंगूठा चूसने लगा || १२१|| कुछ देर बाद वह माता के स्तनका चूचक मुँहमें दावकर दूध पीने लगा तथा चित्त लेटकर माताके कर-पल्लवोंको सुख उपजाने लगा || १२२ ॥ फिर छाती के बल सरकने लगा । पुनः उठनेका प्रयत्न करता परन्तु फिर नीचे गिर पड़ता । तदनन्तर माताकी हाथकी अँगुली पकड़ मणिमय फशंपर चलने लगा || १२३|| तदनन्तर धूलिमें खेलता-खेलता आकर माताके कण्ठसे लिपटकर उसे सुख उपजाने लगा और कभी माता के मुखकी ओर नेत्र लगा मुसकराता हुआ तोतली बोली बोलने लगा || १२४|| इस प्रकार मनोहर बालकीड़ाओंसे माताका मनोरथ पूर्ण कर वह अपने असली रूपमें आ गया और नमस्कार कर बोला कि मैं तुझे आकाश में लिये चलता हूँ || १२५||
तदनन्तर वह दोनों भुजाओंसे शीघ्र ही रुक्मिणीको ऊपर उठा आकाशमें खड़ा हो कहने लगा कि 'समस्त यादव राजा सुनें। मैं तुम लोगोंके देखते-देखते लक्ष्मीकी भांति सुन्दर श्रीकृष्णकी प्रिया रुक्मिणीको हरकर ले जा रहा हूँ। हे यादवो ! शक्ति हो तो उसकी रक्षा करो' ।। १२६-१२७।। इस प्रकार कहकर तथा शंख फूंककर उसने रुक्मिगीको तो विमानमें नारद और उदधिकुमारोके पास बैठा दिया और स्वयं युद्ध के लिए आकाशमें आ खड़ा हुआ || १२८|| तदनन्तर चतुरंग सेनाओंसे सहित और पाँचों प्रकारके शस्त्र चलाने में निपुण यादव राजा, युद्धके लिए तैयार हो नगरीसे बाहर निकले || १२९ || प्रद्युम्न विद्याबलसे यादवोंकी सब सेनाको मोहित कर आकाश में स्थित कृष्णके साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा || १३० || अन्तमें प्रद्युम्नने जब कृष्णके अस्त्र- कौशलको निष्फल कर दिया तब प्रौढ़ दृष्टिको धारण करनेवाले दोनों वीर अपनी बड़ी-बड़ी भुजाओं से युद्ध करने के लिए उद्यत हुए || १३१ ॥ उसी समय रुक्मिणीके द्वारा प्रेरित नारदने आकाशमें शीघ्र ही आकर पिता-पुत्रका सम्बन्ध बतला दोनों वीरोंको युद्ध करनेसे रोका || १३२ ॥ तदनन्तर नम्रीभूत पुत्रका आलिंगन कर श्रीकृष्ण परम हर्षको प्राप्त हुए और हपके आँसुओंसे नेत्रोंको व्याप्त करते हुए उसे आशीर्वाद देने लगे ||१३३|| तत्पश्चात् मायासे सुलायी हुई सेनाको विद्यासे उठाकर प्रद्युम्नने सन्तुष्ट हो बन्धुजनोंके साथ-साथ नगरी में प्रवेश किया || १३४ ॥ | जिन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी ऐसी पुत्रवत्सला रानी रुक्मिणी और जाम्बवतीने उस समय हर्षसे बहुत
१. प्रमदं म ।
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