________________
सप्तचत्वारिंशः सर्गः
विमानं कामगं कामः समारुह्य समं तथा । नारदेन च संप्राप्तो द्वारिकां हारहारिणीम् ॥ १०० ॥ अपश्यत्स विदूरेण सागरेण गरीयसा । प्राकारेण च तां गुप्तां गोपुराट्टालसंकुलाम् ।। १०१ ।। बाह्यबाह्यालिकां मानुरश्वव्यायामहेतुना । निर्गतोऽदर्शि कामेन गगनस्थविमानिना || १०२ || तुरगस्त्वरया दिव्य स्थविराकारधारिणा । नीतो भानुकुमारार्थमारूढस्तं स हारिणम् ||१०३ ।। बाह्यमानेन तेनासौ कुमारः कामरूपिणा । खकीकृत्य चिरं नीतः स्थविशन्तं निजेच्छया ॥ १०४ ॥ अवतीर्णस्तो भानुरहो कौशलमित्यलम् । हसितः साट्टहासेन करास्फालनकारिणा ॥ १०५ ॥ जरारोप्यमाणस्तु भानुलोकेन तं चिरम् । खलीकृत्य व्यलीकेन व्याकाश्वस्थः स्वयं ययौ ॥ १०६॥ माया मर्कटमायाश्वैर्मामोपवनभङ्गकृत् । अशोषयन्महावापीं मायया मदनस्तदा ॥ १०७॥ मक्षिकादंशमशकैः सकरस्पन्दनं नृपम् । निवर्त्य द्वारि चिक्रीड खरमेषरथी चिरम् ॥१०८॥ व्यामोह्य पौरलोकं च विविधक्रोडया चिरम् । वसुदेवेन संक्रीड्य मेषयुद्धेन संमदी ॥ १०९ ॥ भोजनेऽग्रासने विप्रः सत्यायाः सोऽग्रजन्मनः । खलीकृत्यासनैर्ल मैश्छर्दिकाहारकोऽगमत् ॥ ३३० ॥
अथानन्तर कन्या उदधिकुमारी और नारद मुनिके साथ, इच्छानुकूल गमन करनेवाले विमानपर आरूढ़ होकर प्रद्युम्न, द्वारोंसे सुन्दर द्वारिका नगरी जा पहुँचा || १०० || दूरसे ही उसने विशाल सागर और कोटसे सुरक्षित एवं गोपुर और अट्टालिकाओसे व्याप्त द्वारिकाको देखा ||१०१|| उसी समय सत्यभामाका पुत्र भानुकुमार, घोड़ेको व्यायाम करानेके लिए नगरीके बाह्य मैदान में आया था उसे प्रद्युम्नने देखा । देखते ही वह विमानको आकाशमें खड़ा रख पृथिवीपर आया और वृद्धका रूप रख सुन्दर घोड़ा लेकर भानुकुमारके पास पहुँचा । बोला कि मैं यह घोड़ा भानुकुमार के लिए लाया हूँ । देखते ही भानुकुमार उस सुन्दर घोड़ापर सवार हो गया ||१०२-१०३|| इच्छानुकूल रूपको धारण करनेवाले उस घोड़ेने भानुकुमारको बहुत देर तक तंग किया और बाद में वह भानुकुमारको साथ ले अपनी इच्छानुसार उस वृद्धके पास ले आया । भानुकुमार घोड़ासे नीचे उतर आया और वृद्धने अट्टहास कर तथा हाथसे घोड़ाका आस्फालन कर व्यंग्यपूर्ण भाषा में हंसी उड़ाते हुए भानुकुमारसे कहा कि अहो ! घोड़ाके चलानेमे आपकी बड़ी चतुराई है ? || १०४ - १०५॥। साथ ही वृद्धने यह भी कहा कि में बहुत बूढ़ा हो गया हूँ स्वयं मुझसे घोड़ापर बैठते नहीं बनता । यदि कोई मुझे बैठा दे तो मैं अपना कौशल दिखाऊँ । साथ ही भानुकुमार के लोग उसे घोड़ापर चढ़ानेके लिए उद्यम करने लगे परन्तु प्रद्युम्नने अपना शरीर इतना भारी कर लिया कि उन अनेक लोगोंको उसका उठाना दुर्भर हो गया। इस प्रकार अपनी मायासे उन सब लोगोंको तंग कर वह वृद्ध रूपधारी प्रद्युम्न उस घोड़ेपर स्वयं चढ़ गया और अपना कौशल दिखाता हुआ चला गया || १०६ || तदनन्तर उसने मायामयी वानरों और मायामयी चोड़ोंसे सत्यभामाका उपवन उजाड़ डाला तथा मायासे उसकी बड़ी भारी वापिका सुखा दी || १०७ || नगरके द्वारपर राजा श्रीकृष्ण आ रहे थे उन्हें देख उसने मायामयी मक्खियों ओर डांस-मच्छरोंको इतनी अधिक संख्या में छोड़ा कि उनका आगे बढ़ना कठिन हो गया और हाथ हिलाते हुए उनसे लौटते ही बना । तदनन्तर वह गधे और मेढ़के रथपर सवार हो नगरमें चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा || १०८|| इस प्रकार नाना तरहकी क्रीड़ाओंसे नगरवासियों को मोहित कर उसने बड़ी प्रसन्नतासे अपने बाबा वसुदेव के साथ मेषबुद्ध से क्रीड़ा की || १०९ ||
तदनन्तर सत्यभामा के महल में पहुँचा । वहाँ ब्राह्मणोंका भोज होनेवाला था सो प्रद्युम्न एक ब्राह्मणका रूप रख सबसे आगेके आसनपर जा बैठा। एक अपरिचित ब्राह्मणको आगे बैठा देख सब ब्राह्मण कुपित हो गये तब लगे हुए आसनोंसे उसने उनं ब्राह्मणों को खूब तंग किया । १. यथेच्छगामि । २. प्रद्युम्नः । ३. दिव्यस्थविराकारम, ग. ।
Jain Education International
५६५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org