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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
५६३ पुत्रोदन्तं ततः श्रुत्वा द्विगुणक्रोधदीपितः । समय सर्वसैन्येन संप्राप्तः कालसंवरः ।।७५।। विद्याविकृतसैन्येन प्रद्यम्नेन ततश्चिरम् । युद्ध्वामन्नोऽति भग्नेच्छः स गत्वा कृष्णसंवरः ॥७६॥ ऊचे कनकमाला तां देहि प्रज्ञप्तिमित्यरम् । स्तन्येन सह बाल्येऽस्मै मया दत्तेति सावदत् ।।७७॥ ज्ञातमायादुरीहोऽसौ पुनरागत्य मानवान् । युध्यमानोऽमुना बद्धो निहितो हि शिलातले ॥७८।। तदानीमेव संप्राप्तो नारदोऽतिविशारदः । प्रद्यम्नेन कृताभ्यर्चः संबन्धमखिलं जगौ ॥७९॥ कालसंवरमुन्मुच्य क्षमयित्वा ततोऽवदत् । पूर्वकर्मवशेच्छाया मातु, क्षम्यतामिति ॥८॥ 'निरुपायानुपायज्ञो मुक्त्वा पञ्चशतान्यपि । भ्रातृस्नेहपरः कामः क्षमयित्वा पुनः पुनः ।।८१॥ आपृष्टेन स तुष्टेन कालसंवरभूभृता । विसृष्टो रुक्मिणीकृष्णदर्शनोत्सुकमानसः ॥८२॥ प्रणम्य पितरं स्नेहाशारदेन सहाम्बरम् । अथारूढो विमानेन द्वारिकागमन प्रति ॥८३।। संकथाभिविचित्रामिनभस्यागच्छतोस्तयोः । अतिक्रान्तेमपुरयोः सैन्यं दृष्टिपथेऽभवत् ।।८।। कस्येदमटवीमध्ये पूज्य सैन्यमधो महत् । पश्चिमाशामुखं याति क किमर्थमतिद्वतम् ॥८५॥ संपृष्टः कामदेवेन नारदोऽप्यगदीदिति । शृणु काम कथालेशं कथयामि तवाधुना ॥८६॥ अस्ति दुर्योधनो राजा कुरुवंशविभूषणः । दुर्योधनो द्विषां युद्धे स हास्तिनपुरे वरे ॥८७।।
तदनन्तर पुत्रोंका समाचार सुन द्विगुणित क्रोधसे देदीप्यमान होता हुआ कालसंवर युद्धको तैयारी कर सब सेनाके साथ वहां पहुंचा ॥७५।। उधर प्रद्युम्नने भी विद्याके प्रभावसे एक सेना बना ली सो उसके साथ चिर काल तक यद्ध कर कालसंवर हार गया और जीवनको आशा छोड़ जाकर कनकमालासे बोला कि 'तू मुझे शीघ्र ही प्रज्ञप्ति नामक विद्या दे।' कनकमालाने कहा कि 'मैं तो बाल्य अवस्थामें दूधके साथ वह विद्या प्रद्युम्नके लिए दे चुकी हूँ' ॥७६-७७।। तदनन्तर स्त्रीको मायापूर्ण दुश्चेष्टाको जानकर मानी कालसंवर पुनः युद्ध के मैदानमें आकर युद्ध करने लगा और प्रद्युम्नने उसे बांधकर एक शिलातलपर रख दिया ॥७८।। उसी समय अत्यन्त निपुण नारदजी वहां आ पहुंचे। प्रद्युम्नने उनका सम्मान किया। तदनन्तर नारदने सब सम्बन्ध कहा ॥७॥ तदनन्तर राजा कालसंवरको बन्धनसे मुक्त कर प्रद्युम्नने क्षमा मांगते हुए उनसे कहा कि माता कनकमालाने जो भी किया है वह पूर्व कर्मके वशीभूत होकर ही किया है अतः उसे क्षमा कीजिए ||८०|| उपायके ज्ञाता प्रद्यम्नने जिनका कछ भी उपाय नहीं चल रहा था ऐसे। कुमारोंको भी छोड़ दिया और भ्रातृस्नेहके प्रकट करने में तत्पर हो उनसे बार-बार क्षमा मांगी ॥८॥
तदनन्तर रुक्मिणी और कृष्णके दर्शनके लिए जिसका मन अत्यन्त उत्सुक हो रहा था ऐसे प्रद्युम्नने जानेके लिए राजा कालसंवरसे आज्ञा मांगी और उसने भी सन्तुष्ट होकर उसे विदा कर दिया ।।८२॥ तत्पश्चात् स्नेहपूर्वक पिताको प्रणाम कर प्रद्युम्न, द्वारिका जानेके लिए नारदके साथ-साथ विमान द्वारा आकाशमें आरूढ़ हुआ ।।८३|| नाना प्रकारकी कथाओंके द्वारा आकाशमें आते हुए दोनों जब हस्तिनापुरको पार कर कुछ आगे निकल आये तब एक सेना उनके दृष्टिपथमें आयो-एक सेना उन्हें दिखाई दी ।।८४॥ सेनाको देख प्रद्युम्नने नारदसे पूछा कि 'हे पूज्य ! यह अटवीके बीच नीचे किसकी बड़ी भारी सेना विद्यमान है ? इस सेनाका मुख पश्चिम दिशाको ओर है। यह बड़ी तेजीसे कहां और किसलिए जा रही है ?' इस प्रकार प्रद्युम्नके पूछनेपर नारदने कहा कि हे प्रद्युम्न ! सुनो, मैं इस समय तुझसे एक कथाका कुछ अंश कहता हूँ ॥८५-८६॥
कुरुवंशका अलंकारभूत एक दुर्योधन नामका राजा है जो युद्ध में शत्रुओके लिए सचमुच
१. निरपायानु. म., घ.।
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