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हरिवंशपुराणे
दृष्ट्वा हृष्टा जगौ तं सा श्रृणु काम भणामि ते । गौरीं प्रज्ञप्तिविद्यां च त्वं गृहाण यदीच्छसि ॥ ६३ ॥ ततः प्रसाद इच्छामि दीयतामितिवादिने । ददौ विधियुते विद्ये विद्याधरदुरासदे ॥ ६४ ॥ प्रसारितकरो विद्ये गृहीत्वा प्रमदी स ताम् । प्राणविद्याप्रदानान्मे गुरुस्त्वमिति सद्वचाः ॥ ६५॥ त्रिःपरीत्य प्रणम्याघ्रे स्थितः सुकरशेखरः । अपत्योचितमादेशं याचित्वा स्वोचितं ययौ ॥ ६६ ॥ छद्मिताहमिति ज्ञात्वा सातिकोपवशासतः । कक्षवक्षः कुचोद्देशान् नखक्षतभृतोऽकरोत् ॥६७॥ सादर्शयच्च पत्येऽङ्गं नाथ प्रद्युम्नचेष्टितम् । पश्येत्यपत्यसंभारं प्रत्येतिस्म स चापि तत् ॥ ६८ ॥ आहूय रहसि क्रुद्धः पुत्रपञ्चशतानि सः । आदिदेशान्यदुर्बोधं प्रद्युम्नो मार्यतामिति ॥ ६९ ॥ लब्धादेशास्ततस्तुष्टास्ते तमादाय सादराः । अन्येद्युरगमन्पापा वापीं कालाम्बुनामिकाम् ॥७०॥ निपत्य युगपत्सर्वे तस्योपरि जिघांसवः । प्राचूचुदन् जलक्रीडां वाप्यां कुर्म इति द्विषः ।।७१ || कर्णे कथितमेतस्य ततः प्रज्ञप्तिविद्यया । याथातथ्यमिति क्रोधादन्तर्हिततनुः क्षणात् ॥ ७२ ॥ पपात माया वायां निर्धाता इव निर्घृणाः । तेऽपि सर्वे समं पेतुरस्योपरि जिघांसवः ॥७३॥ ऊर्ध्वपादानधोवस्त्रानेकशेषानमूनसौ । स्तम्भयित्वानुजं कृत्वा पञ्चचूडमजीगमत् ॥७४॥
प्रद्युम्नको आया देख कनकमालाने उससे कहा कि हे काम ! मैं एक बात कहती हूँ सुन, यदि तू मुझे चाहता है तो मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्याएँ कहती हूँ- बतलाती हूँ - तू ग्रहण कर ||६३|| तदनन्तर 'यह आपकी प्रसन्नता है, मैं आपको चाहता हूँ, विद्याएँ मुझे दीजिए' इस प्रकार कहनेवाले प्रद्युम्नके लिए कनकमालाने विद्याधरोंको दुष्प्राप्य दोनों विद्याएँ विधिपूर्वक दे दीं ||६४|| हाथ फैलाकर दोनों विद्याओंको ग्रहण करता हुआ प्रद्युम्न बड़ा प्रसन्न हुआ। जब वह विद्याएँ ले चुका तब इस प्रकारके उत्तम वचन बोला कि 'पहले अटवीसे लाकर आपने मेरी रक्षा की अतः प्राणदान दिया और अभी विद्यादान दिया - इस तरह प्राणदान और विद्यादान देनेसे आप मेरी गुरु हैं'। इस प्रकारके उत्तम वचन कह तीन प्रदक्षिणाएँ दे वह हाथ जोड़ शिरसे लगाकर सामने खड़ा हो गया और पुत्रके उचित जो भी आज्ञा मेरे योग्य हो सो दीजिए, इस प्रकार याचना करने लगा । कनकमाला चुप रह गयी और प्रद्युम्न थोड़ी देर वहाँ रुककर चला गया ।। ६५-६६ ।। ' मैं इस तरह इसके द्वारा छलो गयी हूँ' यह जान कनकमालाने तीव्र क्रोधवश अपने कक्ष, वक्षःस्थल तथा स्तनोंको स्वयं ही नखोंके आघातसे युक्त कर लिया || ६७ || और पतिके लिए अपना शरीर दिखाते हुए कहा कि हे नाथ ! अपत्यजनों के योग्य ( ? ) यह प्रद्युम्नकी करतूत देखो । पतिने भी खोके इस प्रपंचपर विश्वास कर लिया || ६८ || राजा कालसंवर इस घटना से बहुत ही क्रुद्ध हुआ । उसने एकान्तमें बुलाकर अपने पांच सौ पुत्रोंसे कहा कि 'जिस तरह किसी अन्यको पता न चल सके उस तरह इस प्रद्युम्नको मार डाला जाये' || ६९ ॥
तदनन्तर पिताकी आज्ञा पा हर्षसे फूले हुए वे पापी कुमार बड़े आदर से दूसरे दिन प्रद्युम्नको साथ लेकर कालाम्बु नामक वापिका पर गये ||७० || और एक साथ सब प्रद्युम्नपर कूदकर उसके घातकी इच्छा रखते हुए उसे बार-बार प्रेरित करने लगे कि चलो वापीमें जलक्रीड़ा करें ॥७१॥ उसी समय प्रज्ञप्ति विद्याने प्रद्युम्नके कानमें सब बात ज्योंकी-त्यों कह दी। सुनकर प्रद्युम्नको बहुत क्रोध आया और वह उसी क्षण मायासे अपना मूल शरीर कहीं छिपा कृत्रिम शरीरसे वापिकामें कूद पड़ा । उसके कूदते ही वज्र के समान निर्दय एवं मारने के इच्छुक सब कुमार एक साथ उसके ऊपर कूद पड़े ।।७२-७३ | प्रद्युम्नने एकको शेष बचा सभी कुमारों को ऊपर पैर और नीचे मुख कर कोल दिया और एक भाईको पांच चोटियोंका धारक बना खबर देनेके लिए कालसंवर के पास भेज दिया ॥७४॥
१. कचोद्देशान् म. । २. जिधित्सवः म । ३. कर्णो म. ।
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