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हरिवंशपुराणे विद्याकरिवरं प्राप कपित्थवनदेवतः । वल्मीके क्षुरिको चापि कवचं मुद्रिकादिकम् ॥३७॥ शरावपर्वते लेभे कटिसूत्रमुरश्छदम् । कामः कटककेयूरकण्ठिकाभरणं शुमम् ॥३८॥ शूकरासुरत: शडं दिव्यं प्राप शरासनम् । हारं सुरेन्द्रजालं च मनोवेगाद्विकीलितात् ॥३९॥ मनोवेगरिपोर्लेभे बसन्त खचरात्ततः । कन्या नरेन्द्रजालंच तयोः सख्यस्य कारकः ।।४०॥ चापं च कौसुमं प्रापदर्जनो मवनाधिपात् । उन्मादमोहसंतापमदशोककरान शरान् ।।४१॥ अन्यां नागगुहां यातश्चन्दनागुरुमालिकाः । पौष्पं छत्रं च शयनं लेभे तत्र तु पार्थिवात् ॥४२॥ स दुर्जयवने लेभे जयन्तगिरिवर्तिनी । खेटवायुसरस्वस्यो रतिं कामः शरीरजाम् ।।४३॥ षोडशेष्वपि चैतेषु लाभस्थानेषु मन्मथम् । लब्धानेकमहालाभं दृष्टा विस्मितमानसाः ॥४४।। ज्ञात्वा पुण्यस्य माहात्म्यं कुमाराः संवरादयः । शंश्रित्वा मदनेनामा निजं नगरमाययुः ॥४५॥ लब्धं दिव्यं रथं शुभैर्वृषेव्यू ढमधिष्ठितः । चापी पञ्चशरी छवी ध्वजी दिव्यविभूषणी ॥४६॥ मनो हरन्नरस्त्रीणां मदनो मदनेषुमिः । मेघकूटं प्रविष्टोऽसौ कुमारशतवेष्टितः ॥१७॥ सप्रणामस्ततो दृष्ट्वा प्रद्युम्नः कृष्णसंवरम् । धिष्ण्यं कनकमालायाः प्रस्थितः स रथे स्थितः ॥४८॥ तथा च स्थितनेपथ्यं नेत्रपथ्यं न दूरतः । दृष्टा कनकमाला तं भावं कमपि संश्रिता ॥४०॥ स्थादुत्तीर्य विनतं शंसिस्वाघ्राय मस्तके । आसयित्वान्तिके तं सास्पर्शयन्मृदुपाणिना॥५०॥
कपित्थ नामक वनमें गया तो वहाँके निवासी देवसे विद्यामय हाथी ले आया। वल्मीक वनमें प्रवेश कर वहाँके निवासी देवसे छुरी, कवच तथा मुद्रिका आदि ले आया ॥३७॥ शराव नामक पर्वतमें वहां के निवासी देवसे कटिसूत्र, कवच, कड़ा, बाजूबन्द और कण्ठाभरण आदि प्राप्त किये ॥३८॥ शूकर नामक वनमें शूकरदेवसे शंख और सुन्दर धनुष प्राप्त किया तथा वहींपर कीले हुए मनोवेग नामक विद्याधरसे हार और इन्द्रजाल प्राप्त किया ॥३९॥ मनोवेगका वैरी वसन्त विद्याधर था, कुमारने उन दोनोंकी मित्रता करा दी इसलिए उससे एक कन्या तथा नरेन्द्रजाल प्राप्त किया ॥४०॥ आगे चलकर एक भवनमें प्रवेश कर उसके अधिपति देवसे पुष्पमय धनुष और उन्माद, मोह, सन्ताप, मद तथा शोक उत्पन्न करनेवाले बाण प्राप्त किये ||४१।। तदनन्तर एक दूसरी नागगुहामें गया तो वहाँके स्वामी देवसे चन्दन तथा अगुरुकी मालाएँ. फलोंका छत्र और फलोंकी शय्या प्राप्त की ॥४२॥ तदनन्तर जयन्तगिरिपर वर्तमान दुर्जय नामक वनमें गया और वहाँसे विद्याधर वायु तथा उसकी सरस्वती नामक स्त्रीसे उत्पन्न रति नामक पुत्री लेकर लौटा ॥४३॥ इस प्रकार इन सोलहों लाभके स्थानोंमें जिसे अनेक महालाभोंकी प्राप्ति हुई थी ऐसे प्रद्युम्न कुमारको देखकर संवर आदि कुमारोंके चित्त आश्चर्यसे चकित हो गये। तदनन्तर पुण्यका माहात्म्य समझ शान्ति धारण कर वे प्रद्युम्नके साथ अपने नगर वापस आ गये ।।४४-४५।। जो प्राप्त हुए सफेद बैलोंसे जुते दिव्य रथपर आरूढ़ था, धनुष, पांच बाण, छत्र, ध्वजा और दिव्य आभूषणोंसे आभूषित था तथा कामके बाणोंसे पुरुष और स्त्रियोंके मनको हर रहा था ऐसे प्रद्युम्नने सैकड़ों कुमारोंसे परिवृत हो मेघकूट नामक नगरमें प्रवेश किया ॥४६-४७॥
। उसने नमस्कार कर कालसंवरके दर्शन किये और उसके बाद उसी भांति रथपर बैठा हुआ कनकमालाके घरकी ओर प्रस्थान किया ।।४८।। उस प्रकारको बेषभूषासे युक्त तथा नेत्रोंके लिए आनन्ददायी प्रद्युम्नको समीप आया देख कनकमाला किसी दूसरे ही भावको प्राप्त हो गयो ॥४९|| रथसे नीचे उतरकर नम्रीभूत हुए प्रद्युम्नकी कनकमालाने बहुत प्रशंसा की, उसका मस्तक सूंघा, उसे पासमें बैठाया और कोमल हाथसे उसका स्पर्श
१. संशित्वा म., ग.। २. सह ।
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