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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
मन्मथ मदनः कामः कामदेवो मनोभवः । इत्यन्वर्थाभिधानः स नानङ्गोऽनङ्गनामकः ॥ २५॥ युद्धे सिंहरथं जित्वा जितपञ्चशतात्मजम् । कालसंवरभूपाय सकामोऽदर्शयत्कृती ॥ २६ ॥ तादृशं तनयं दृष्ट्वा संतुष्टः कालसंवरः । मेने श्रेणीद्वयं दृप्तं वशीकृतमिवात्मनाम् ॥२७॥ महाराज्यपदोदारफलपुष्पं नृपोऽस्य सः । यौवराजमहापहं बबन्ध च विधानतः ॥ २८ ॥ शतानि तनयाः पञ्च कालसंवरभूभृतः । चिन्तयन्ति ततोऽपायं मदनस्य समन्ततः ॥ २९|| आसने शयने वस्त्रे ताम्बूलेऽशनपानके । नालं छलयितुं ते तं छलान्वेषणतत्पराः ॥३८॥ अन्यदा तु विनीतोऽसौ नोतो नीत्यानुकूलकः । कुमारस्तैः कुमारौघैः सिद्धायतनगोपुरम् ||३१|| नोदितस्तैः समारूढो गोपुराग्रं सवेगवान् । विद्याकोशं तिरीटं च लेभे तद्वासिनोऽमरात् ||३२|| प्रविष्टश्च पुनर्वेगान्महाकालगुहामसौ । खड्गं सखेटकं लेभे छत्रचामरसंयुतम् ||३३|| लेभे नागगुहायां च पादपीठं सुराद्वरम् । नागशय्यासनं वीणां विद्यां प्रासादकारिणीम् ||३४|| मकरध्वजमुत्तुङ्कं वाप्यां युद्धे जितात्सुरात् । अग्निकुण्डेऽग्निसंशोध्यं वस्त्रयुग्ममवाप्य सः ||३५|| मेषाकृति गिरौ लेभे कर्णकुण्डलयोर्द्वयम् । मौलिं चामृतमालां च पाण्डुके मर्कटामरात् ||३६||
तरुण प्रद्युम्न यद्यपि अन्य युवाओंके हृदयपर प्रहार करता था - उनमें मात्सर्यं उत्पन्न करता था तथापि वह सबको प्रिय था ||२४|| मन्मथ, मदन, काम, कामदेव और मनोभव इत्यादि सार्थंक नामों से वह युक्त था । यद्यपि वह अनंग - शरीरसे रहित नहीं था तथापि लोग उसे अनंग कहते थे । भावार्थ-प्रद्युम्न कामदेव पदका धारक था । साहित्य में कामका एक नाम अनंग है इसलिए प्रद्युम्न भी अनंग कहलाता था || २५ || अतिशय कुशल प्रद्युम्नने, पाँच सौ पुत्रोंको जीतनेवाले सिंहरथको युद्ध में जीतकर कालसंवरको दिखा दिया । भावार्थ - उस समय एक सिंहरथ नामका विद्याधर कालसंवरके विरुद्ध था उसे जीतने के लिए उसने अपने पाँच सौ पुत्र भेजे थे परन्तु सिंहरथने उन सबको पराजित कर दिया था । प्रद्युम्न ऐसा कुशल शूरवीर था कि उसने उसे युद्ध में जीतकर कालसंवरके आगे डाल दिया ||२६|| ऐसे वीर पुत्रको देखकर कालसंवर बड़ा सन्तुष्ट हुआ और विजयार्धकी दोनों श्रेणियोंको अपने वशीभूत मानने लगा ||२७|| इसी से प्रभावित हो राजाने प्रद्युम्न के लिए विधि-विधानपूर्वक युवराज पदका वह महापट्ट बांध दिया जो महाराज्यपदरूपी उत्कृष्ट फलके लिए पुष्पके समान था ||२८|| इस घटनासे राजा कालसंवरके जो पाँच सौ पुत्र थे वे सब ओरसे प्रद्युम्नके नाशका उपाय सोचने लगे ||२९|| वे निरन्तर छलके खोजने में तत्पर रहने लगे। परन्तु बैठने, सोने, वस्त्र, पान तथा भोजन, पानी आदि के समय वे उसे छलने के लिए समर्थं नहीं हो सके ||३०||
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किसी एक समय नीति के अनुकूल आचरण करनेवाले कुमारोंके समूह, विनीत प्रद्युम्नकुमारको सिद्धायतनके गोपुर के समीप ले गये और इस प्रकारकी प्रेरणा करने लगे कि 'जो इस गोपुर के अग्रभागपर चढ़ेगा वह उसपर रहनेवाले देवसे विद्याओंका खजाना तथा मुकुट प्राप्त करेगा' | साथियोंसे इस प्रकार प्रेरित हो कुमार वेगसे गोपुरके अग्रभागपर चढ़ गया और वहाँके निवासी देवसे विद्याओं का खजाना तथा मुकुट ले आया ॥ ३१-३२ ॥ तदनन्तर भाइयोंसे प्रेरित हो वेगसे महाकाल नामक गुहा में घुस गया और वहांसे तलवार, ढाल, छत्र तथा चमर ले आया ||३३|| वहाँसे निकलकर नागगुहा में गया और वहाँके निवासी देवसे उत्तम पादपीठ, नागशय्या, आसन, वीणा तथा भवन बना देनेवाली विद्या ले आया ||३४|| वहाँसे आकर किसी वापिका में गया और युद्ध में जीते हुए देवसे मकरके चिह्नसे चिह्नित ऊँची ध्वजा प्राप्त कर निकलीं । तदनन्तर अग्निकुण्ड में प्रविष्ट हुआ सो वहांसे अग्निसे शुद्ध किये दो वस्त्र ले आया ॥ ३५॥ तत्पश्चात् मेषाकृति पर्वतमें प्रवेश कर कानोंके दो कुण्डल ले आया । उसके बाद पाण्डुक नामक वनमें प्रवेश कर वहाँ के निवासी मर्केट नामक देवसे मुकुट और अमृतमयी माला लेकर लौटा ||३६||
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