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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
कीचकानुवृत्तान्ते गोग्रहे तदनन्तरे । वृत्ते भीमार्जुनो ग्राग्निभस्मिताविनान्तरं ॥ १ ॥ अभिन्ननिजमर्यादा मिन्नदुश्शासनान्तराः । पाण्डवाः पाण्डुभवने 'संहताः 'सुनया इव ॥२॥ संपूर्णावयोगत्वा धर्मराजस्य ते युधि । सह दुर्योधनेनास्थुः संमता मुनयो यथा ॥ ३ ॥ ततः पूरितसर्वाशाः सर्वार्थामृतवर्षिणः । तेऽप्यूनुष्पदमत्युच्चैः प्रावृषेण्या इवाम्बुदाः ॥४॥ ● तत्प्रसाद्यापि चुक्षोभ गान्धारीयशतं पुनः । नेयस्य जलवर्गस्य सुप्रसादः कियश्चिरम् ॥५॥ कृते दायादवर्गेण पूर्ववत्संधिदूषणे । प्रशमय्य तनून् भ्रातॄन् प्रागिवासौ युधिष्टिरः ॥ ६ ॥ अनिच्छन् स्वच्छधीर्घोरः कृपावान् कौरवाहितम् । मात्रा भ्रात्रादिभिभूयः श्रितवान् दक्षिणां दिशम् ॥७॥ सविन्ध्यवनमध्यास्य तपस्यन्तं निजाश्रमे । दृष्ट्वा विदुरमानम्य शशंस सानुजैः सह ॥ ८ ॥ कृतार्थं पूज्य ते जन्म संपरित्यज्य संपदः । स्थितोऽभयो जिनेन्द्रोक्ते मोक्षमार्गे महातपाः ||९|| विशुद्धं दर्शनं यत्र तत्त्वश्रद्धानलक्षणम् । ज्ञानं सर्वार्थविद्योति चारित्रमनवद्यकम् ||१०||
अथानन्तर कीचक के छोटे भाइयोंका वृत्तान्त और उसके बाद जिसमें भीम तथा अर्जुनकी कोपाग्निसे शत्रुरूपी वनका अन्तराल भस्म हो गया था ऐसा गायोंका पकड़ना आदि घटनाएँ हो चुकीं तब अपनी मर्यादाको खण्डित न करनेवाले होकर भी दुःशासन ( खोटा शासन अथवा दुःशासन नामक कौरव के अन्तरको ) विदीर्णं करनेवाले पाण्डव समीचीन नयोंके समान एक-दूसरेके अनुकूल रहते हुए अपने पिता पाण्डुके भवनमें एकत्रित हुए ॥१-२॥ अबतक उनकी अज्ञात निवासकी अवधि पूर्ण हो चुकी थी इसलिए धर्मराज - युधिष्ठिरकी आज्ञा भीमसेन आदि, युद्ध में दुर्योधनके साथ जा खड़े हुए और जिस प्रकार मुनि सबको सम्मत – इष्ट होते हैं उसी प्रकार वे पाण्डव भी सबको सम्मत – इष्ट थे || ३ || तदनन्तर जिस प्रकार समस्त दिशाओंको पूर्ण करके और सर्वहितकारी जलकी वर्षा करनेवाले वर्षाकालिक मेघ अत्यन्त उन्नत उत्तम पदको प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले एवं समस्त अर्थंरूपी अमृतकी वर्षा करनेवाले वे पाण्डव भी अत्यन्त उच्च पदको प्राप्त हुए । भावार्थ- पाण्डव हस्तिनापुर आकर रहने लगे और सबकी दृष्टिमें उच्च माने जाने लगे ||४||
तदनन्तर दुर्योधनादिक सौ भाई ऊपरसे उन्हें प्रसन्न रखकर हृदयमें पुनः क्षोभको प्राप्त होने लगे - भीतर ही भीतर उन्हें परास्त करनेके उपाय करने लगे सो ठीक ही है क्योंकि इधरउधर बहनेवाले जल में स्वच्छता कितने समय तक रह सकती है ? ॥५॥ दुर्योधनादिकने पहले के समान फिरसे सन्धिमें दोष उत्पन्न करना शुरू कर दिया और उससे भीम, अर्जुन आदि छोटे भाई फिरसे उत्तेजित होने लगे परन्तु युधिष्ठिर उन्हें शान्त करते रहे || ६ || स्वच्छ बुद्धिके धारक, धीर-वीर एवं दयालु युधिष्ठिर कौरवोंका कभी अहित नहीं विचारते थे इसलिए वे माता तथा भाई आदि परिवार के साथ पुनः दक्षिण दिशा की ओर चले गये ||७|| चलते चलते युधिष्ठिर विन्ध्यवन में पहुँचे । वहाँ अपने आश्रममें रहकर तपस्या करनेवाले विदुरको देखकर उन्होंने अपने सब भाइयोंके साथ उन्हें नमस्कार किया और उनकी इस प्रकार स्तुति की ॥८॥ हे पूज्य ! आपका ही जन्म सफल है जो आप सम्पदाओं का परित्याग कर जिनेन्द्रोक्त मोक्षमार्ग में महातप करते हुए निर्भय स्थित है ||९|| जिस मार्ग में तत्वश्रद्धानरूप निर्मल सम्यग्दर्शन, समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करने१. संहृताः म. । २. सुघना इव म. । ३. ऊनुः प्राप्ताः (ङ. टि. ) तेप्यनुष्पदं - म । ४ प्रासाद्यापि म. ध. ।
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