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हरिवंशपुराणे
व्रत गुप्तिस मित्यक्ष कषायजयसंयमाः । यत्र मार्गे स्थितास्तत्र सिद्ध्यन्ति त्वादृशोऽचिरात् ॥ ११॥ इति मार्गस्तुतिं कृत्वा तं च स्तुत्वा कृतानतिः । द्वारिकां ज्ञातिभिर्ज्ञातः संविवेश सहानुजैः ॥ १२॥ उत्सवः परमो जातः स्वसृस्वस्त्रीय संगमे । समुद्रविजयादीनां दशानां चिरदर्शिनाम् ॥१३॥
मशहरिरामादिदशार्ह सुतसुन्दराः । अन्तःपुराणि सर्वाणि प्रजाश्च तुतुषुस्तदा ॥१४ ॥ यथाक्रममशेषाणां दर्शने दर्शनोत्सवे । जाते परस्परं तेषां स्वजनानां सुखावहे ॥ १५ ॥
दुपाण्डववगतौ मेनाते मिलितौ मुदा । अपकारमपि त्यक्त्वा सूपकारं परैः कृतम् ॥ १६ ॥ ततः प्रासादवर्येषु पञ्च पञ्चसु विष्णुना । निरूपितेषु ते तस्थुः सर्वभोगप्रदायिषु ॥ १७ ॥ ज्येष्ठो लक्ष्मीमती लेभे भीमः शेषवतीं ततः । सुभद्रामर्जुनः कन्यां कनिष्ठौ विजयां रतिम् ॥१८॥ दशार्हतनयास्तास्ते परिणीय यथाक्रमम् । रेमिरेऽमूमिरिष्टाभिः पाण्डवास्त्रिदशोपमाः ॥ १९ ॥ कथेयं कुरुवीरस्य कथिता ते समासतः । प्रद्युम्नस्याधुना वच्मि शृणु श्रेणिक चेष्टितम् ॥ २० ॥ विजयार्ध गिरौ रम्ये प्रद्युम्नोऽसौ कलागुणैः । विधुवबन्धुमुद्वाधिं सहावर्धत वर्धयन् ॥ २१ ॥ विद्याधरोचिता विद्या स विद्याधरपुत्रकः । वियद्यानादिका बाल्ये जग्राहाशु महोद्यमः ॥ २२ ॥ बाल्यादारभ्य लावण्यरूपसौभाग्य पौरुषैः । सोऽरिमित्रन रस्त्रीणामस्त्री धूर्त मनोऽहरत् ॥ २३ ॥ यौवनं स परिप्राप्तः प्राप्तसर्वास्त्रकौशलः । हृदयेषु युवा यूनां प्रहरन्नपि वल्लमः ॥२४॥
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वाला ज्ञान और निर्दोष चारित्र प्रतिपादित है एवं व्रत, गुप्ति, समिति तथा इन्द्रिय और कषायको जीतनेवाले संयमका निरूपण किया गया है उस मार्ग में स्थित हो आप जैसे महानुभाव शीघ्र ही सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं ।। १०-११ || इस प्रकार जिनेन्द्रोक्त मागं तथा महामुनि विदुरको स्तुति कर युधिष्ठिर द्वारिका पहुँचे । यादवोंको पाण्डवोंके आगमनका जब पता चला तो उन्होंने इनका बड़ा स्वागत किया और छोटे भाइयोंके साथ युधिष्ठिरने द्वारिकामें प्रवेश किया ॥ १२॥ समुद्रविजय आदि दशों भाइयोंने बहन तथा अपने भानजोंको बहुत समय के बाद देखा था इसलिए इन सबके समागमसे उन्हें परम हर्षं हुआ || १३|| भगवान् नेमिनाथ, कृष्णा, बलदेव आदि समस्त यादव कुमार, समस्त अन्तःपुर और प्रजाके सब लोग उस समय बहुत ही सन्तुष्ट हुए ||१४|| नेत्रोंको आनन्द देनेवाला पाण्डवों तथा समस्त स्वजनों का वह दर्शन -- परस्परका मिलना सबके लिए सुखदायी हुआ || १५ || यादव और पाण्डव परस्पर मिलकर हर्षसे ऐसा मानने लगे किं शत्रुओंने हमारा अपकार नहीं उपकार ही किया है । भावार्थ -- यदि दुर्योधनादिक अपकार न करते तो हम लोग इस तरह परस्पर मिलकर आनन्दका अनुभव नहीं कर सकते थे, अतः उनका किया अपकार अपकार नहीं प्रत्युत उपकार है ऐसा सब लोग मानने लगे || १६ |
तदनन्तर श्रीकृष्ण के द्वारा दिखलाये हुए भोगोपभोगकी सब सामग्रीसे युक्त पांच उत्तमोत्तम महलों में पांचों पाण्डव पृथक्-पृथक् रहने लगे ||१७|| युधिष्ठिरने लक्ष्मीमती, भीमने शेषवती, अर्जुनने सुभद्रा, सहदेवने विजया और नकुलने रति नामक कन्याको प्राप्त किया ||१८|| यथाक्रम से पूर्वोक्त यादव- कन्याओंको विवाह कर देवोंकी उपमाको धारण करनेवाले पाण्डव उन इष्ट स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करने लगे ||१९|| गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने तेरे लिए संक्षेपसे कुरुवीरकी कथा कही । अब मैं प्रद्युम्नकी चेष्टाएँ कहता हूँ सो सुन ||२०||
अत्यन्त रमणीय विजयार्धं पर्वतपर कलारूपी गुणोंके द्वारा बन्धु-जनोंके हर्षरूपी सागरको बढ़ाता हुआ प्रद्युम्न चन्द्रमाके समान बढ़ने लगा ||२१|| विद्याधरपुत्र प्रद्युम्नने बड़े उद्यम के साथ बाल्यकालमें ही आकाशगामिनी आदि विद्याधरोंके योग्य विद्याओंको शीघ्र ही सीख लिया था ||२२|| वह बाल्य अवस्थासे ही लेकर अस्त्र के समान अपने लावण्य, रूप, सौभाग्य और पौरुषके द्वारा शत्रु मित्र पुरुष तथा स्त्रियोंके मनको हरण करता था ।। २३ ॥ वनको प्राप्त होते ही प्रद्युम्न समस्त अस्त्र-शस्त्रों में कुशल हो गया । अपने सौन्दर्यके कारण
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