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हरिवंशपुराणे अनुप्रेक्षामिरारमानं भावयन् मावशुद्धितः । रत्नत्रयमसौ शुद्धं श्रुतवान् कर्तुमुद्यतः ॥३८॥ कीचकं शतसंख्यास्ते भ्रातरो भ्रान्तचेतसः। अदृष्ट्वा कुपिता 'दुष्टाश्चितकाग्निमचिन्वत ॥३९|| तत्र चिंक्षिप्सवः पापाः शैलन्ध्रीं बलशालिनः । क्षिप्तास्ते तत्र भीमेन भस्मसादावमागताः॥४०॥ एकेनैवाहूयं नीतास्ते भीमेन मदोद्धताः । बहवोऽपि हि हिंस्यन्ते सिंहेनैकेन दन्तिनः ॥४१॥ अथासौ कीचकः साधुरेकान्तोद्यानमध्यगः । पर्यङ्कासनयोगस्थो यक्षेणैक्षि कदाचन ॥४२॥ तस्य चित्तपरीक्षार्थ द्रौपदीवेषमाश्रितः । निशोथेऽदर्शयद्रपमात्मनो मदनालसम् ॥४३॥ साधुना वधिरेणेव रम्यालापश्रुतौ स्थितम् । रूपं दृष्टिविलासाढ्यामन्धेनेव मनोहरम् ॥४४॥ गुप्तेन्द्रियकलापस्य मनःशुद्धि मुपेयुषः । साधोस्तस्य समुत्पन्नमवधिज्ञानलोचनम् ॥४५॥ उपसंहृतयोगं तं प्रणम्यासौ सुरस्ततः । मुनिमक्षमयन्नाथ क्षमस्वेति पुनः पुनः ॥४६॥ पुनः प्रणम्य पप्रच्छ द्रौपदीमोहकारणम् । कारणेन विना न स्यात्तादृग्मोहसमुद्भवः ॥४७॥ कतिचित्पूर्वजन्मानि द्रौपद्याः स्वस्य चेत्यसौ। कीचकाख्योऽवदद्योगी यक्षाय प्रणतात्मने ॥४८॥ तरङ्गिणीसरित्तीरे वेगवत्याश्च संगमे । म्लेच्छोऽहमभवद्गीद्रः क्षुद्रः क्षद्रासुमद्विपुः ॥४९॥
जिससे उसने रतिवर्धन नामक मुनिराजके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥३७|| कीचक मुनि अनुप्रेक्षाओंके द्वारा आत्माकी भावना करते-आत्माका स्वरूप विचारते, शास्त्रोंका स्वाध्याय करते और भाव-शुद्धिके द्वारा रत्नत्रयको शुद्ध करनेके लिए उद्यम करने लगे ॥३८॥ कीचकके सौ भाइयोंने जब कीचकको नहीं देखा तो वे बहुत ही घबड़ाये। उन्होंने जहाँ-तहाँ उसकी खोज की पर कहीं नहीं दिखा। उसी समय उन्हें एक जलती हुई चिताकी अग्नि दिखी। किसीने बता दिया कि वह कीचककी ही चिता है, यह सुन वे सब भाई बहुत ही कुपित हुए। वे सोचने लगे कि कीचकको यह दशा इस शैलन्ध्रीने ही की है इसलिए वे कुपित होकर उसे (शलन्ध्रीका वेष धारण करनेवाले भीमको) उसी चितामें डालनेकी इच्छा करने लगे। परन्तु भीमसेनने उनकी बलवत्ता ठिकाने लगा दी और एक-एक कर सबको जलती हुई उस चितामें डाल दिया जिससे सब जलकर राख हो गये ॥३९-४०।। देखो, एक ही भीमसेनने मदसे उद्धत हुए अनेक पुरुषोंको नामावशिष्ट कर दिया-मरणको प्राप्त करा दिया सो ठोक ही है क्योंकि एक सिंह अनेकों हाथियोंको नष्ट कर देता है ॥४१॥
___ अथानन्तर किसी दिन कीचक मुनि एकान्त उपवन के मध्य में विराजमान थे। वे उस समय पद्मासनसे योगारूढ हो निश्चल बैठे थे कि एक यक्षने उन्हें देखा ॥४२॥ उनके चित्तकी परीक्षा करनेके लिए वह यक्ष आधी रातके समय द्रौपदीका रूप रख उनके पास पहुंचा और कामसे अलसाया हुआ रूप उन्हें दिखाने लगा ॥४३॥ परन्तु मुनिराज कीचक, उसके सुन्दर आलापके सुननेमें बहिरे-जैसे हो गये और दृष्टिके विलाससे युक्त उसका मनोहर रूप देखनेके लिए अन्धेके समान हो गये ॥४४॥ जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंके समूहकी अच्छी तरह रक्षा को थी तथा जो मनकी शुद्धिको प्राप्त हो रहे थे ऐसे उन कीचक मुनिराजको उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥४५॥ तदनन्तर ध्यान समाप्त होनेपर यक्षने उन्हें प्रणाम किया और 'हे नाथ! क्षमा कीजिए' इस प्रकार बार-बार कहकर उनसे क्षमा मांगी ॥४६॥ तत्पश्चात् यक्षने पुनः नमस्कार कर उनसे द्रौपदीके प्रति मोह उत्पन्न होनेका कारण पूछा क्योंकि बिना कारणके उस प्रकारके मोहकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ॥४७॥ उत्तरस्वरूप मुनिराज कोचक, नम्रीभूत यक्षके लिए अपने तथा द्रौपदोके कु पूर्वभव इस प्रकार कहने लगे ॥४८॥ - एक समय मैं, तरंगिणी नामक नदीके तटपर जहाँ वेगवती नामक नदीका संगम होता १. दृष्टा म., घ. । २. विक्षिप्सवः म. । ३. नामावशेष मरणमित्यर्थः ( ग. टि.)। ४. विलासाभ्या-म. ।
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