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हरिवंशपुराणे
द्रुतविलम्बितवृत्तम् स्यजत वाचमसत्यमलोद्धतां भजत 'सत्यवचोनिरवद्यताम् । 'निजयशोविशदा सगुणोद्यतां विजयिनी स्विह विश्वविदोदिताम् ॥१५८॥ सुभृतमाचरणं शरणं मवेदसुभृतां विपदीह पराभवे । सुचरितस्य फलं नयपौरुषं परिभवत्यहितस्य हि तां रुषम् ॥१५९॥ शिखिशिखावलिधर्मघनागमः परनिराकरणैकजिनागमः । विविधलामनिधिर्धियतां जनैव्रतविधिः श्रुतवतिकृताञ्जनैः ॥१६॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो कुरुवंशोत्पत्तिपाण्डवधार्तराष्ट्राणां च
पार्थद्रौपदीलाभवर्णनो नाम पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ॥४५॥
सत्य वचनसे उत्पन्न उस निर्मलताका सेवन करो जो अपने यशसे विशद है, गुणी मनुष्योंके प्राप्त करनेमें उद्यत है। इस लोकमें विजय प्राप्त करानेवाली है और सर्वज्ञदेवके द्वारा निरूपित है ॥१५८॥ इस संसारमें विपत्ति और पराभवके समय अच्छी तरहसे आचरित अपना आचरण ही प्राणियोंके लिए शरण है क्योंकि सदाचारका फल जो नीति और पौरुष है वह शत्रुके उस रोषको परिभूत कर देता है-दूर कर देता है ॥१५९।। जो अग्निकी शिखावलीसे वर्धमान धर्मरूपी ग्रीष्म कालको नष्ट करनेके लिए वर्षा ऋतुके समान है, दूसरोंका निराकरण करनेके लिए एक जिनागम है, और नाना प्रकारके लाभोंका भण्डार है, ऐसा व्रतविधान, श्रुतरूपी अंजनकी शलाकाका प्रयोग करनेवाले मनुष्योंके द्वारा अवश्य ही धारण करने योग्य है ॥१६०॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कुरुवंशकी उत्पत्ति, पाण्डव और धार्तराष्ट्रोंके समागम तथा अर्जुनको द्रौपदीके लामका
वर्णन करनेवाला पैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हआ ॥४५॥
१. सत्यवचसः निरवद्यता तां। २. निजयशोविशदाशगुणोद्यतां म.। निजयशो विशदं न गणोद्यतां क.। ३. अथवा विजयिनीं त्विह वित्थ विदोऽद्य ताम् इति पाठः क पुस्तकटिप्पणकृत इह संगतः लोके, हे विदः हे पण्डिताः अद्य अधुना, ताम् वाचं, विजयिनीं वित्थ जानीथ । ४. पुराभवे ख., ङ.। ५. व्रतविधिश्रुतवतिक. व्रतविधिप्रतिपादकश्रुतवा कृतमञ्जनं यः इति क-प्रति टिप्पणी।
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