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षट्चत्वारिंशः सर्गः
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अथ मानितबन्धूनां पाण्डवानां गजाह्वये । नगरे नगधीराणां काले गच्छति भोगिनाम् ॥१॥ प्रत्यहं परया भूत्या वर्धमानानमूनमी । पञ्चापि शतमालोक्य पूर्ववञ्चलिताः स्थितेः ॥२॥ तं शकुन्युपदेशेन सद्यो द्यूते विजित्य सः । पञ्चज्येष्टं शतज्येष्ठः सानुजं सानुजोऽगदीत् ॥३॥ गन्तव्यं यत्र ते नाम श्रूयते न युधिष्ठिर । स्थातव्यं सत्यसंधेन त्वया प्रच्छन्नवर्तिमा ॥४॥ इत्युक्तं प्रतिपद्यासौ शमितभ्रातृमण्डलः । निरैत्परिच्छदं त्यक्त्वा द्वादशाब्दष्टतावधिः ॥ ५ ॥ अनुयातार्जुनं प्रेम्णा प्रमदेन च पूरिता । द्रौपदीन्दुमिव ज्योत्स्ना कृतकृष्णनिजस्थिति ( ? ) ॥६॥ ततस्ते धैर्य संपन्नाः सुवीर्या नरकुञ्जराः । क्रमेण सहिताः प्राप्ता रम्यां कालाञ्जलाटवीम् ॥ ७ ॥ प्रकीर्णकासुरीसूनुः सुतारस्तत्र खेचरः । असुरोहीतनगरादागत्य रमते तदा ॥८॥ कान्तया कुसुमावल्या रममाणं वनान्तरे । किरातवेषिणं कान्तं युक्तं शावर विद्यया ॥९॥ किरातवेषभृत्परन्या सह क्रीडन् यदृच्छया । ददर्श खेचरं चापी चापिनं स धनंजयः ॥१०॥ अकस्माच्च तयोर्जाते दर्शने सहसानयोः । बभूव विषमं युद्धं दिव्येषुच्छन्न दिङ्मुखम् ॥१३॥ भुजयुद्धे ततो लग्ने भुजेन दृढमुष्टिना । जघानोरसि तं पार्थः खचरं बलिनं बली ॥१२॥
अथानन्तर बन्धुओं का सम्मान करनेवाले पर्वतोंके समान धीर-वीर पाण्डवोंका भोग भोगते हुए हस्तिनापुर में सुखसे समय व्यतीत होने लगा ॥ १ ॥ पाँचों पाण्डव उत्कृष्ट विभूतिसे प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे, उन्हें देख सो कौरव पहले के समान पुनः मर्यादासे विचलित हो गये ॥२॥ एक बार शकुनिके उपदेशसे दुर्योधनने युधिष्ठिरको शीघ्र ही जुआमें जीत लिया । जीत लेने पर अपने छोटे भाइयोंके साथ मिलकर दुर्योधनने भीमसेन आदि छोटे भाइयोंसे युक्त युधिष्ठिरसे कहा कि हे युधिष्ठिर ! चूँकि तुम सत्यवादी हो - तुम्हारे द्वारा की हुई प्रतिज्ञा कभी मिथ्या नहीं होती इसलिए तुम्हें अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार यहाँसे चला जाना चाहिए और छिपकर वहाँ रहना चाहिए जहाँसे तुम्हारा नाम भी सुनाई न दे सके ||३४|| दुर्योधनके इस कथनको सुनकर यद्यपि भीमसेन आदि भाइयोंको क्षोभ उत्पन्न हुआ तथापि युधिष्ठिर उन्हें शान्तु कर बारह वर्ष की लम्बी अवधिके लिए सब राज्य-पाट छोड़ हस्तिनापुरसे बाहर निकल गय ॥ जिस प्रकार चाँदनी चन्द्रमाके पीछे-पीछे चलती है उसी प्रकार प्रेम और हर्षसे भरी द्रौपदी अर्जुनके पीछे-पीछे चलने लगी ||६||
तदनन्तर धैर्यंसे सम्पन्न, उत्तम शक्तिसे सुशोभित एवं एक-दूसरे के हित करनेमें तत्पर वे सब श्रेष्ठ पुरुष क्रम-क्रमसे कालांजला नामक अटवी में पहुँचे ||७|| उस समय वहाँ प्रकीर्णकासुरीका पुत्र सुतार नामका विद्याधर असुरोद्गीत नामक नगरसे आकर क्रीड़ा कर रहा था !! ८ || वह शावरी विद्यासे युक्त था अत: किरातका सुन्दर वेष रख अपनी कुसुमावली नामक स्त्रीके साथ क्रीड़ा कर रहा था || ९ || उसकी स्त्री भी किरातका वेष रखे थी और दोनों इच्छानुसार साथसाथ क्रीड़ा कर रहे थे । धनुर्धारी अर्जुनने धनुर्धारी उस विद्याधरको देखा ॥ १० ॥ उन दोनोंने ज्योंही अकस्मात् एक-दूसरे को देखा त्योंही उनमें भयंकर युद्ध होने लगा । ऐसा युद्ध कि जिसमें दिशाएँ दिव्य वाणोंसे आच्छादित हो गयीं ॥ ११ ॥ तदनन्तर उन दोनोंमें बाहुयुद्ध होनेपर बलवान्
दुर्योधनः । ५. वैरिणा म । ६ प्रतिपाद्यासो म. ।
१. परमा म. । २. कौरवाः । ३ युधिष्ठिरं । ४ ७. अनुजाता - म., घ. ।
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